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________________ : १८ : व्यावहारिक दृष्टि के बीच एक अन्य महत्त्व का अन्तर- १८८, जैन एव उपनिषद के तत्त्व ज्ञान की निश्चय दृष्टि के बीच भेद - १८९ । १५ : सप्तभंग सप्तभगी और उसका आधार १९० ; मूल - १९० ; सप्तभगीका कार्य : १९१, महत्त्व के चार अगों का अन्यत्र १९३; 'अवक्तव्य' के अर्थ के विषय मे १९३, सप्तभगी सशयात्मक ज्ञान नही है—१९४ । १६ : ब्रह्म और सम १९६-२०१ समता का प्रेरक तत्त्व 'सम' – १९६; ब्रह्म और उसके विविध अर्थ -- ९९६, श्रमण और ब्राह्मण विचार धारा की एक भूमिका - १९७, शाश्वत विरोध होने पर भी एकता की प्रेरक परमार्थ दृष्टि - १९८; १९० - १९५ सात भंग और उनका विरोधका परिहार - उपलब्ध निर्देशकुछ विचारणा; १७ : चार संस्थाएं २०२ - २१० १. सघ सस्था : चतुर्विध सघ - २०२; २. साधुसस्था-२०२; बुद्धिमत्तापूर्ण सविधान - २०३; भिक्षुणीसघ और उसका बौद्ध सघ पर प्रभाव - २०३; साधु का ध्येय जीवनशुद्धि - २०४; स्थानान्तर और लोकोपकार — २०५; ३. तीर्थसस्था - २०६; देवद्रव्य के रक्षण की सुन्दर व्यवस्था२०७; जानने योग्य बातें - २०७; ४. ज्ञान-संस्था -- ज्ञानभण्डार - २०८; ज्ञान और उसके साधनो की महिमा - २०८; ज्ञानभण्डारों की स्थापना और उनका विकास - २०८; ब्राह्मण और जैन भण्डारों के बीच अन्तर - २०९, जैन ज्ञान भण्डारो की असाम्प्रदायिक दृष्टि - २१० । • १८ पर्युषण और संत्वसरी २११-२१४ जैन पर्वो का उद्देश्य -- २११; पर्युषण पर्व श्रेष्ठ अष्टाका - २११ ; सवत्सरी : महापर्व - २१२ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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