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________________ १६१; कर्मतत्त्व के विचार की प्राचीनता और समानता१६२; जैन तथा अन्य दर्शनों की ईश्वर के सृष्टिकर्त त्वसम्बन्धी मान्यता-१६३; ईश्वर सृष्टिकर्ता और कर्मफलदाता क्यो नही ?-१६४; ईश्वर और जीव के बीच भेदाभेद-१६५; अपने विघ्न का कारण स्वय जीव ही -१६६; कर्म-सिद्धान्त के विषय मे डा० मेक्समूलर का अभिप्राय-१६६, कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का अश है-१६७; कर्म शब्द का अर्थ और उसके कुछ पर्याय--१६८; कर्म का स्वरूप-१६९, पुण्य-पाप की कसौटी-१६९; सच्ची निर्लेपता; कर्म का बन्धन कब न हो-१७०; कर्म का अनादित्व-१७१; कर्मबन्ध का कारण-१७१, कर्म से छूटने के उपाय--१७२, आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व और पुनर्जन्म-१७२; कर्मतत्त्व के विषय मे जैनदर्शन की विशेषता-१७३ । १३ : अनेकान्तवाद अनेकान्त का सामान्य विवेचन-१७६, अन्य दर्शनो मे अनेकान्त दृष्टि-१७७; अनेकान्तदृष्टि का आधार : सत्य, --१७८, भ० महावीर के द्वारा सशोधित अनेकान्तदृष्टि और उसकी शर्ते-१७९; अनेकान्तदृष्टि का खण्डन और उसका व्यापक प्रभाव-१८० । : नयवाद १८२-१८९ 'नगम' शब्द का मूल और अर्थ-१८२, अवशिष्ट छ. नय, उनका आधार और स्पष्टीकरण -१८२; अपेक्षाएं और अनेकान्त-१८३; सात नयों का कार्यक्षेत्र-१८४, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय-१८५; निश्चय और व्यवहार नय का अन्य दर्शनों मे स्वीकार -१८६; तत्त्वज्ञान और आचार मे उनकी भिन्नता -१८७, तत्त्वलक्षी निश्चय और व्यवहारदृष्टि-१८७; आचारलक्षी निश्चय और व्यवहारदृष्टि-१८८; तत्त्वलक्षी और आचारलक्षी निश्चय एवं १७६-१८१
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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