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________________ जैनधर्म का प्राण १४२ पर मोहर ठीक न लगी हो तो वह सिक्का ग्राह्य नही होता, वैसे ही जो भावलिंगयुक्त है, पर द्रव्यलिगविहीन है, उन प्रत्येकबुद्ध आदि को वन्दन नही किया जाता । जिस सिक्के पर मोहर तो ठीक लगी है, पर चाँदी अशुद्ध है, वह सिक्का ग्राह्य नही होता । वैसे ही द्रव्यलिंगधारी होकर जो भागविहीन है वे पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के कुसाधु अवन्दनीय है । जिस मिक्के की चाँदी और मोहर, ये दोनो ठीक नही है, वह भी अग्राह्य है । इसी तरह जो द्रव्य और भाव उभयलिंगरहित है वे वन्दनीय नही । वन्दनीय सिर्फ वे ही है, जो शुद्ध चाँदी तथा शुद्ध मोहरवाले सिक्के के समान द्रव्य और भाव — उभयलिंग सम्पन्न है । ' अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करनेवाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही, बल्कि असयम आदि दोषो के अनुमोदन द्वारा कर्मबध होता है । अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करनेवाले को ही दोष होता है, यही बात नहीं, किंतु अवन्दनीय की आत्मा का भी गुणी पुरुषो के द्वारा अपने को वन्दन कराने रूप असयम की वृद्धि द्वारा अध. पात होता है । वन्दन बत्तीस दोषों से रहित होना चाहिए । अनादृत आदि वे बत्तीस दोष आवश्यक निर्युक्ति, गा० १२०७-१२११ मे बतलाए है । (४) प्रतिक्रमण - प्रमादवश शुभ योग से गिरकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करना, यह 'प्रतिक्रमण" है । तथा अशुभ योग को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग मे बर्तना, यह भी 'प्रतिक्रमण है ।" प्रतिवरण, परिहरण, करण, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शोधि, ये सब १. आवश्यक नियुक्ति गाथा ११३८ । २. वही गाथा ११०८ । ३. वही गाथा १११० । ४. स्वस्थानाद्यत्परस्थान प्रमादस्य वशाद्गत । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ - आवश्यकसूत्र पृ० ५५३ ५. प्रतिवर्तन वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । नि.शल्यस्य यतेर्थत् तद्वा ज्ञेय प्रतिक्रमणम् ॥ १ ॥ - आवश्यकसूत्र, पृ० ५५३ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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