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________________ जैनधर्म का प्राण १४१ द्वारा या चारित्र द्वारा ही समभाव मे स्थिर रहा जा सकता है । चारित्रसामायिक भी अधिकारी की अपेक्षा से (१) देश और (२) सर्व, यों दो प्रकार का है। देश सामायिक-चारित्र गृहस्थो को और सर्वसामायिकचारित्र साधुओ को होता हे ।' समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित आदि शब्द सामायिक के पर्याय है। (२) चविंशतिस्तव-चौबीस तीर्थकर, जो कि सर्वगुणसम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति करने रूप है। इसके (१) द्रव्य और (२) भाव, ये दो भेद है । पुष्प आदि सात्त्विक वस्तुओ के द्वारा तीर्थकरों की पूजा करना 'द्रव्यस्तव' और उनके वास्तविक गुणो का कीर्तन करना 'भावस्तव, है। अधिकारी-विशेष गृहस्थ के लिए द्रव्यस्तव कितना लाभदायक है, इस बात को विस्तारपूर्वक आवश्यकनियुक्ति, पृ० (४९२-४९३) मे दिखाया है। (३) वंदन-मन, वचन शरीर का वह व्यापार वदन है, जिससे पूज्यो के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है। शास्त्र मे वदन के चिति-कर्म, कृति-कर्म, पूजा-कर्म यदि पर्याय प्रसिद्ध है। वदन के यथार्थ स्वरूप जानने के लिए वद्य कैसे होने चाहिए? वे कितने प्रकार के है ? कौन-कौन अवंद्य हैं ? अवद्य-वदन से क्या दोष है ? वदन करते समय किन-किन दोषों का परिहार करना चाहिए, इत्यादि बातें जानने योग्य है। द्रव्य और भाव, उभय चारित्रसम्पन्न मुनि ही वन्द्य है। वन्द्य मुनि (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) स्थविर और (५) रत्नाधिक रूप से पॉच प्रकार के है। जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग एक-एक से या दोनो से रहित है, वह अवन्द्य है। अवन्दनीय तथा वन्दनीय के सबन्ध मे सिक्के की चतुर्भङ्गी प्रसिद्ध है। जैसे चॉदी शुद्ध हो १. वही गाथा ७९६ । २. वही गाथा १०३३ । ३. आवश्यकवृत्ति पृ० ४९२ । ४. आवश्यक नियुक्ति गाथा ११०३ । ५. वही गाथा ११०६ । ६. वही गाथा ११९५।। ७. आवश्यकनियुक्ति गाथा ११३८ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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