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________________ जैनधर्म का प्राण १३७ अहिंसा का पालक किसी खास विशिष्ट लाभ के उद्देश्य से हिंसा की प्रवृत्ति करे तो भी उसके व्रत का भग नहीं माना जाता। कई प्रसंग ही ऐसे है, जिनके कारण वह अहिसक हिसा न करे या हिंसा मे प्रवृत्त न हो तो उसे विराधक माना है। विराधक यानी जैन आज्ञा का लोपक । ऐसी ही स्थिति सत्यव्रत और अस्तेय आदि व्रतों में भी घटाई जाती है । परन्तु ब्रह्मचर्य मे तो ऐसा एक भी अपवाद नही है । जिसने जिस प्रकार का ब्रह्मचर्य स्वीकार किया हो वह उसका निरपवाद रूप से वैसा ही आचरण करे। दूसरे के आध्यात्मिक हित की दृष्टि लक्ष्य में रखकर अहिंसादि का अपवाद करनेवाला तटस्थ या वीतराग रह सकता है, ब्रह्मचर्य के अपवाद में एसा सम्भव ही नही है। वैसा प्रसग तो राग, द्वेष एव मोह के ही अधीन है। इसके अतिरिक्त वैसा कामाचार का प्रसग किसी के आध्यात्मिक हित के लिए भी सम्भव नही हो सकता । इसी वजह से ब्रह्मचर्य के पालन का निरपवाद विधान किया गया है और उसके लिए प्रत्येक प्रकार के उपाय भी बतलाये गये है। ब्रह्मचर्य का भग करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त तो कठोर है ही, परन्तु उसमे भी जो जितने ऊँचे पद पर रहकर ब्रह्मचर्य की विराधना करता है उसके लिए उसके पद के अनुसार तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम प्रायश्चित्त कहा है। जैसे कि कोई साधारण क्षुल्लक साधु अज्ञान और मोहवश ब्रह्मचर्य की विराधना करे तो उसका प्रायश्चित्त उसके क्षुल्लक अधिकार के अनुसार निश्चित किया है, परन्तु कोई गीतार्थ (सिद्धान्त का पारगामी और सर्वमान्य) आचार्य वैसी भूल करे तो उसका प्रायश्चित्त उस क्षुल्लक साधु की अपेक्षा अनेकगुना अधिक कहा गया है। लोगों मे भी यही न्याय प्रचलित है । कोई एकदम सामान्य मनुष्य ऐसी भूल करे तो समाज उस तरफ लगभग उदासीन-सा रहता है, परन्तु कोई कुलीन और आदर्श कोटि का मनुष्य ऐसे प्रसग पर साधारण-सी भूल भी करे तो समाज उसे कभी सहन नही करता।२ । (द०अ०चि०भा०१,पृ०५०७-५१५, ५१७-५२१, ५२४-५२७,५३३-५३४) १. तिलकाचार्यकृत जीतकल्पवृत्ति पृ० ३५-३६ । २. इस लेख के सहलेखक प.श्री बेचरदास दोशी भी है।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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