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________________ १३६ जैनधर्म का प्राण और शरीर से करने-कराने का त्याग । यह प्रथम पद्धति है । इसी प्रकार इतर सब पद्धतियों के बारे मे समझ लेना । ६. ब्रह्मचर्य के अतिचार किसी भी प्रतिज्ञा के चार दूषण होते है । उनमें लौकिक दृष्टि से दूषितता का तारतम्य माना गया है । वे चारो प्रतिज्ञा के घातक तो है ही, परन्तु व्यवहार तो प्रतिज्ञा के दृश्य घात को ही घात मानता है । इन चार के नाम तथा स्वरूप इस प्रकार है (१) प्रतिज्ञा का अतिक्रम करना अर्थात् प्रतिज्ञा के भग का मानसिक संकल्प करना । (२) प्रतिज्ञा का व्यतिक्रम करना अर्थात् वैसे सकल्प की सहायक सामग्री को जुटाने की योजना करना । ये दोनो दूषणरूप होने पर भी व्यवहार इन दोनो को क्षम्य गिनता है, अर्थात् मनुष्य की अपूर्ण भूमिका तथा उसके आसपास के वातावरण को देखते हुए ये दोनो दोष चला लिए जा सकते है । ( ३ ) परन्तु जिस प्रवृत्ति के कारण व्यवहार मे भी ली हुई प्रतिज्ञा का आशिक भग माना जाय, अर्थात् जिस प्रवृत्ति के द्वारा मनुष्य का बर्ताव व्यवहार में दूषित माना जाय वैसी प्रवृत्ति त्याज्य मानी गई है । वैसी प्रवृत्ति ही नाम अतिचार अथवा दोष है । यह तीसरा दोष माना जाता है । (४) अनाचार अर्थात् प्रतिज्ञा का सर्वथा नाश । यह महादोष है । शास्त्रकार कहते है कि गृहस्थ के शील के पाँच अतिचार है : (१) इत्वरपरिगृहीतागमन, (२) अपरिगृहीतागमन, (३) अनगक्रीडा, (४) परविवाहकरण, (५) कामभोगो मे तीव्र अभिलाषा । ये पाँच प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्वदारसन्तोषी गृहस्थ के शील के लिए दूषणरूप है । कोई भी गृहस्थ स्वदारसन्तोष व्रत के प्रति पूर्ण रूप से वफा - दार रहे, तो इन पाँचो मे से एक भी प्रवृत्ति का वह कभी आचरण नही कर सकता । ७. ब्रह्मचर्य की निरपवादता अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि महाव्रत सापवाद है, परन्तु मात्र एक ब्रह्मचर्य ही निरपवाद है । अहिंसा व्रत सापवाद है, अर्थात् सर्व प्रकार से
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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