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________________ १३० जैनधर्म का प्राण की योग्यता सिद्ध करने की बात जैनो मे अत्यन्त प्रसिद्ध है । बाईसवे तीर्थंकर नेमिनाथ द्वारा विवाह से पूर्व ही परित्यक्त और बाद मे साध्वी बनी राजकुमारी राजीमती ने गिरनार की गुफा के एकान्त में उसके सौन्दर्य को देखकर ब्रह्मचर्य से चलित होनेवाले साधु और पूर्वाश्रम के अपने देवर रथनेमि को ब्रह्मचर्य मे स्थिर होने के लिए जो मार्मिक उपदेश दिया है और रथनेमि को पुन स्थिर करके स्त्रीजाति पर हमेशा से किये जाते चचलता और अबलात्व के आरोप को हटाकर धीर साधको में जो विशिष्ट प्रख्याति प्राप्त की है उसे सुनने से और पढ़ने से आज भी ब्रह्मचर्य के साधको को अपूर्व धैर्य प्राप्त होता है । ब्रह्मचारिणी श्राविका बनने के बाद कोशा वेश्या ने अपने यहाँ आये हुए और चचल मनवाले श्री स्थूलभद्र के गुरुभाई को उपदेश देकर स्थिर करने की जो बात आती है वह पतनशील पुरुष के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा स्त्रीजाति का गौरव बढानेवाली है । परन्तु इन सबसे अधिक उदात्त दृष्टान्त विजय सेठ और विजया सेठानी का है। ये दोनों दम्पती विवाह के पश्चात् एकशयनशायी होने पर भी अपनीअपनी शुक्ल और कृष्ण पक्ष मे ब्रह्मचर्यपालन की पहले ली गई भिन्न-भिन्न प्रतिज्ञा के अनुसार उसमें प्रसन्नतापूर्वक समग्र जीवनपर्यन्त अडिग रहे और सर्वदा के लिए स्मरणीय बन गये । इस दम्पती की दृढता, प्रथम दम्पती और पीछे से भिक्षुक जीवन अगीकार करनेवाले बौद्ध भिक्षु महाकाश्यप तथा भिक्षुणी भद्रा कपिलानी की अलौकिक दृढता का स्मरण कराती है। ऐसे अनेक आख्यान जैन साहित्य मे आते है । उनमे ब्रह्मचर्य से चलित होनेवाले पुरुष को स्त्री द्वारा स्थिर कराने के जैसे ओजस्वी दृष्टान्त है वैसे ओजस्वी दृष्टात चलित होनेवाली स्त्री को पुरुष के द्वारा स्थिर कराने के नही है अथवा एकदम विरल है । ३. ब्रह्मचर्य के अलग निर्देश का इतिहास जैन परम्परा मे चार और पॉच यामो के ( महाव्रतो के ) अनेक उल्लेख १. देखो 'बौद्ध सघनो परिचय' (गु० ) पृ० १९० तथा २७४ ॥
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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