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________________ जैनधर्म का प्राण १२९ के लिए आवश्यक आत्मबल स्त्री और पुरुष दोनो समान भाव से प्रकट कर सकते हैं, इस बारे मे जैन एव बौद्ध शास्त्रों का मत एक-सा है । इसी कारण विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाली अनेक स्त्रियो मे से सोलह स्त्रियाँ महासती के रूप में प्रत्येक जैन घर में प्रसिद्ध है और प्रात काल आबालवृद्ध प्रत्येक जैन कतिपय विशिष्ट सत्पुरुपो के नामो के साथ उन महासतियों के नामो का भी पाठ करता है और उनके स्मरण को परम मगल मानता है। (आ) कई ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणियो के ब्रह्मचर्यजीवन मे शिथिल होने के उदाहरण मिलते है, तो उनसे भी अधिक आकर्षक उदाहरण ब्रह्मचर्य मे अद्भुत स्थिरता बतानेवाले स्त्री-पुरुषो के है । वैसे स्त्री-पुरुषों मे केवल त्यागी व्यक्ति ही नही, परन्तु गृहस्थाश्रम मे रहे हुए व्यक्ति भी आते है। बिम्बिसार श्रेणिक राजा का पुत्र भिक्षु नन्दिषेण मात्र कामराग के वशीभूत हो, ब्रह्मचर्य से च्युत होकर पुन. बारह वर्ष तक भोगजीवन अगीकार करता है। आपाढ़भूति नामक मुनि ने भी वैसा ही किया था। आर्द्रकुमार नाम का राजपुत्र ब्रह्मचर्य-जीवन से शिथिल हो चौबीस वर्ष तक पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करता है; और अन्त मे एक बार चलित होनेवाले ये तीनो मुनि पुन. दुगुने बल से ब्रह्मचर्य मे स्थिर होते है । इससे उल्टा, भगवान महावीर के पट्टधर शिष्य श्री सुधर्मा गुरु के पास से वर्तमान जैन आगमो के धारक के रूप मे प्रसिद्ध श्री जम्बू नामक वैश्यकुमार ने विवाह के दिन से ही अपनी आठ स्त्रियो को, उनका अत्यन्त आकर्षण होने पर भी, छोड़कर तारुण्य मे ही सर्वथा ब्रह्मचर्य का स्वीकार किया और उस अद्भुत. एवं अखण्ड प्रतिज्ञा के द्वारा आठो नवपरिणीत कन्याओ को अपने मार्ग परः आने के लिए प्रेरित किया। कोशा नामक वेश्या के हावभावों और रसपूर्ण भोजन के बावजूद तथा उसी के घर पर एकान्तवास करने पर भी नन्दमंत्री शकटाल के पुत्र स्थूलभद्र ने अपने ब्रह्मचर्य मे तनिक भी आँच आने नहीं. दी थी और उसके प्रभाव से उस कोशा को पक्की ब्रह्मचारिणी बनाया था। ____ जैनो के परमपूज्य तीर्थकरो मे स्थान प्राप्त मल्लि जाति से स्त्री थी। उन्होने कौमार अवस्था मे अपने ऊपर आसक्त हो विवाह के लिए आये हुए छः राजकुमारो को मार्मिक उपदेश देकर विरक्त बनाया और अन्त में ब्रह्मचर्य लिवाकर तथा अपने अनुयायी बनाकर गुरुपद के लिए स्त्रीजाति
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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