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________________ १२० जैनधर्म का प्राण यथार्थ है, पर जब आध्यात्मिक शुद्धि के साथ सबन्ध रखनेवाली तपस्याओं के प्रतिवाद का सवाल आता है तब वह प्रतिवाद न्यायपूत नही मालूम होता। फिर भी बुद्ध ने निर्ग्रन्थ-तपस्याओ का खुल्लमखुल्ला अनेक बार विरोध किया है, तो इसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि बुद्ध ने निर्ग्रन्थ-परम्परा को पूर्णतया लक्ष्य मे न लेकर केवल उसके बाह्य तप की ओर ध्यान दिया और दूसरी परपराओ के खडन के साथ निर्ग्रन्थ-परम्परा के तप को भी घसीटा। निर्ग्रन्थ-परम्परा का तात्त्विक दृष्टिकोण कुछ भी क्यो न रहा हो, पर मनुष्य-स्वभाव को देखते हुए तथा जैन ग्रन्थो मे आनेवाले' कतिपय वर्णनो के आधार पर हम यह भी कह सकते है कि सभी निर्ग्रन्थ-तपस्वी ऐसे नही थे जो अपने तप या देहदमन को केवल आध्यात्मिक शुद्धि मे ही चरितार्थ करते हो। ऐसी स्थिति में यदि बुद्ध ने तथा उनके शिष्यो ने निर्ग्रन्थ-तपस्या का प्रतिवाद किया, तो वह अशत. सत्य भी कहा जा सकता है। भगवान महावीर के द्वारा लाई गई विशेषता दूसरे प्रश्न का जवाब हमे जैन आगमो से ही मिल जाता है । बुद्ध की तरह महावीर भी केवल देहदमन को जीवन का लक्ष्य न समझते थे, क्योकि ऐसे अनेकविध घोर देहदमन करनेवालो को भ० महावीर ने तापस या मिथ्या तप करनेवाला कहा है। तपस्या के विपय मे भी पार्श्वनाथ की दृष्टि मात्र देहदमन या कायक्लेशप्रधान न होकर आध्यात्मिक शुद्धिलक्षी थी। पर इसमे तो सदेह ही नही है कि निर्ग्रन्थ-परम्परा भी काल के प्रवाह में पड़कर और मानव-स्वभाव की निर्बलता के अधीन होकर आज की महावीर की परम्परा की तरह मुख्यतया देहदमन की ओर ही झुक गई थी और आध्यात्मिक लक्ष्य एक ओर रह गया था। भ० महावीर ने किया सो तो इतना ही है कि उस परंपरागत स्थूल तप का संबंध आध्यात्मिक शुद्धि के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया और कह दिया कि सब प्रकार के कायक्लेश, उपवास आदि शरीरेन्द्रियदमन तप है, पर वे बाह्य तप है, आतरिक तप १. उत्तरा० अ० १७ । २. भगवती ३.१।११.९।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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