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________________ जैनधर्म का प्राण ११९ नैतिक जीवन तथा प्रज्ञा पर ही मुख्य भार दिया । उनको इसी के द्वारा आध्यात्मिक सुख प्राप्त हुआ और उसी तत्त्व पर अपना नया संघ स्थापित किया । न सघको स्थापित करनेवाले के लिए यह अनिवार्य रूप से जरूरी हो जाता है कि वह अपने आचार-विचार सबन्धी नए झुकाव को अधिक से अधिक लोकग्राह्य बनाने के लिए प्रयत्न करे और पूर्वकालीन तथा समकालीन अन्य सम्प्रदाय के मन्तव्यों की उग्र आलोचना करे। ऐसा किये बिना कोई अपने नये सच में अनुयायियो को न तो एकत्र कर सकता है और न एकत्र हुए अनुयायियों को स्थिर रख सकता है । बुद्ध के नये संघ की प्रतिस्पर्द्धा अनेक परपराएँ मौजूद थी, जिनमे निर्ग्रन्थ-परपरा का प्राधान्य जैसा तैसा न था। सामान्य जनता स्थूलदर्शी होने के कारण बाह्य उग्र तप और देहदमन से सरलता से तपस्वियों की ओर आकृष्ट होती है, यह अनुभव सनातन है । एक तो पापित्यिक निर्ग्रन्थ परपरा के अनुयायियो को तपस्या-सस्कार जन्मसिद्ध था और दूसरे, महावीर के तथा उनके निर्ग्रन्थ-संघ के उम्र तपश्चरण के द्वारा साधारण जनता अनायास ही निर्ग्रन्थो के प्रति झुकती ही थी और तपोनुष्ठान के प्रति बुद्ध का शिथिल रुख देखकर उनके सामने प्रश्न कर बैठती थी कि आप तप को क्यों नही मानते ' जबकि सब श्रमण तप पर भार देते है ? तब बुद्ध को अपने पक्ष की सफाई भी करनी थी और साधारण जनता तथा अधिकारी एव राजा-महाराजाओं को अपने मंतव्यों की ओर खीचना भी था । इसलिए उनके लिए यह अनिवार्य हो जाता था कि वे तप की उग्र समालोचना करे। उन्होंने किया भी ऐसा ही । वे तप की समालोचना मे सफल तभी हो सकते थे, जब वे यह बतलाएँ कि तप केवल कष्टमात्र है । उस समय अनेक तपस्वी मार्ग ऐसे भी थे, जो केवल बाह्य विविध क्लेशो मे ही तप की इतिश्री समझते थे । नि. सारता का जहाँ तक सबन्ध है वहाँ तक तो उन बाह्य तपोमार्गों की बुद्ध का तपस्या का खंडन १. अगुत्तर, भा० १, पृ० २२०
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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