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________________ जैनधर्म का प्राण है, जिन्होंने उत्कट तप से अपने देह को केवल पजर बना दिया है। इसके सिवाय आज तक की जैन-परपरा का शास्त्र तथा साधु-गृहस्थों का आचार देखने से भी हम यही कह सकते है कि महावीर के शासन मे तप की महिमा अधिक रही है और उनके उत्कट तप का असर सब पर ऐसा पडा है कि जैनत्व तप का दूसरा पर्याय ही बन गया है। महावीर के विहार के स्थानों मे अग-मगध, कागी-कोशल स्थान मुख्य है । जिस राजगुही आदि स्थान में तपस्या करनेवाले निर्जन्थो का निर्देश बौद्ध ग्रन्थो मे आता है वह राजगृही आदि स्थान तो महावीर के साधना और उपदेश-समय के मुख्य धाम रहे है और उन स्थानो ने महावीर का निर्ग्रन्थ-सघ प्रधान रूप से रहा है। इस तरह हम बौद्ध पिटको और जैन आगमो के मिलान से नीचे लिखे परिणाम पर पहुंचते हे १. खुद महावीर और उनका निर्ग्रन्थ-सघ तपोमय जीवन के ऊपर अधिक भार देते थे। २. अङ्ग-मगध के राजगृही आदि और काशी-कोशल के श्रावस्ती आदि गहरो मे तपस्या करनेवाले निम्रन्थ बहुतायत से विचरते और पाए जाते थे। महावीर के पहले भी तपश्चर्या की प्रधानता ऊपर के कथन से महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन निर्ग्रन्थपरपरा की तपस्या-प्रधान वृत्ति मे तो कोई सदेह रहता ही नहीं, पर अब विचारना यह है कि महावीर के पहले भी निर्ग्रन्थ-परंपरा तपस्या-प्रधान थी या नहीं? इसका उत्तर हमे 'हाँ' मे ही मिल जाता है, क्योकि भ० महावीर ने पावपित्यिक निर्ग्रन्थ-परपरा मे ही दीक्षा ली थी और दीक्षा के प्रारम्भ से ही वे तप की ओर झुके थे। इससे पाश्र्वापत्यिक-परपरा का तप की ओर कैसा झुकाव था इसका हमे पता चल जाता है। भ० पार्श्वनाथ का जो जीवन जैन ग्रन्थो मे वर्णित है उसको देखने से भी हम यही कह सकते है कि १. भगवती २.१।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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