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________________ जैनधर्म का प्राण जनित प्राण-नाश ही हिंसा है-यह विचार जैन और बौद्ध परपरा मे एक-सा मान्य है, फिर भी हम देखते है कि पुराकाल से जैन और बौद्ध परपरा के बीच अहिसा के सबध मे पारस्परिक खण्डन-मण्डन बहुत हुआ है । 'मूत्रकृताङ्ग' जैसे प्राचीन आगम मे भी अहिंसा सबधी बौद्ध मन्तव्य का खडन है। इसी तरह ‘मज्झिमनिकाय' जैसे पिटक ग्रथों मे भी जैन अहिंसा का सपरिहास खण्डन पाया जाता है। उत्तरवर्ती नियुक्ति आदि जैन ग्रथो मे तथा 'अभिधर्मकोष' आदि बौद्ध ग्रथो मे भी वही पुराना खण्डन-मण्डन नए रूप मे देखा जाता है । जब जैन-बौद्ध दोनो परपराएँ वैदिक हिसा की एक-सी विरोधिनी है और जब दोनो की अहिसा सबंधी व्याख्या में कोई तात्त्विक मतभेद नही, तब पहले से ही दोनो मे पारस्परिक खण्डन-मण्डन क्यो शुरू हुआ और चल पड़ा-यह एक प्रश्न है। इसका जवाब जब हम दोनो परपराओ के साहित्य को ध्यान से पढते है, तब मिल जाता है । खण्डन-मण्डन के अनेक कारणो मे से प्रधान कारण तो यही है कि जैन परपरा ने नवकोटिक अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या को अमल में लाने के लिए जो बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियत्रित किया वह बौद्ध परपरा ने नहीं किया। जीवन-सबधी बाह्य प्रवृत्तियों के अति नियत्रण और मध्यममार्गीय शैथिल्य के प्रबल भेद मे से ही जैन और बौद्ध परंपराएँ आपस मे खण्डन-मण्डन मे प्रवृत्त हुई । इस खण्डनमण्डन का भी जैन वाडमय के अहिसा सबधी ऊहापोह मे खासा हिस्सा है, जिसका कुछ नमूना ज्ञानबिन्दु के टिप्पणो में दिए हुए जैन और बौद्ध अवतरणो से जाना जा सकता है । जब हम दोनो परपराओ के खण्डन-मण्डन को तटस्थ भाव से देखते है तब नि सकोच कहना पडता है कि बहुधा दोनों ने एक दूसरे को गलत रूप से ही समझा है । इसका एक उदाहरण 'मज्झिमनिकाय' का उपालिसुत्त और दूसरा नमूना सूत्रकृताङ्ग (१. १. २. २४-३२; २. ६. २६-२८) का है। अहिंसा की कोटिकी हिंसा जैसे-जैसे जैन साधुसघ का विस्तार होता गया और जुदे-जुदे देश तथा काल मे नई-नई परिस्थिति के कारण नए-नए प्रश्न उत्पन्न होते गए, वैसेवैसे जैन तत्त्वचिन्तकों ने अहिसा की व्याख्या और विश्लेषण में से एक स्पष्ट
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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