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________________ जैनधर्म का प्राण त्मिक जय का यह प्रयत्न ही मुख्य जैन अहिंसा है। इसे संयम कहो, तप कहो, ध्यान कहो अथवा कोई भी वैसा आध्यात्मिक नाम दो, परन्तु वह वस्तुतः अहिंसा ही है । और, जैन दर्शन कहता है कि अहिंसा केवल स्थूल आचार नही है, परन्तु वह शुद्ध विचार के परिपाकस्वरूप आया हुआ जीवनोत्कर्षक आचार है । ऊपर कहे गये अहिंसा के सूक्ष्म और वास्तविक रूप मे से उत्पन्न किसी भी बाह्याचार को अथवा उस सूक्ष्म रूप की पुष्टि के लिए निर्मित किसी भी आचार को जैन तत्त्वज्ञान मे अहिसा के रूप में स्थान है । इसके विपरीत, ऊपर-ऊपर से अहिसामय दिखाई देनेवाले चाहे जिस आचार अथवा व्यवहार के मूल मे यदि उपर्युक्त अहिंसा का आन्तरिक तत्त्व विद्यमान न हो तो वह आचार और वह व्यवहार जैन दृष्टि से अहिंसा है अथवा अहिंसा का पोषक है ऐसा नही कहा जा सकता । ૮૪ यहा जैन तत्त्वज्ञान विषयक विचार मे प्रमेयचर्चा का जान-बूझकर विस्तार नही किया; सिर्फ तद्विषयक जैन विचारसरणी का इशारा ही किया है । आचार के बारे मे भी बाह्य नियमों और उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में जान-बूझकर चर्चा नही की है, परन्तु आचार के मूल तत्त्वो की जीवनशोधन की दृष्टि से तनिक चर्चा की है, जिन्हे जैन परिभाषा मे आसव, सवर आदि तत्त्व कहते है | (द० अ० चि० भा० २, पृ० १०४९ - १०६१ )
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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