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________________ ( ७ ) करना पड़ता है। व्यभिचार के लिये नहीं, किन्तु पैसों के लिये वेश्या कृत्रिम प्रेम करके किसी श्रादमी के साथ मायाचार करती है जबकि कुशीला विधवा अपने पाप को सुरक्षित रखने के लिये सारी समाज के साथ मायाचार करती है । अपने व्यभिचार को छुपाने के लिये ऐसी नाग्यिा मुनियों को सेवा सुश्रूषा में आगे आगे रहती है, देव पूजा आदि के कार्यों में अग्रेसर बनती हैं, नप श्रादि के ढोंग करती हैं जिससे लोग उन्हें धर्मात्माबाई कहें और उनका पापाचार भूले रहें । स्मरण रहे कि व्याघ्र से गोमुखव्याघ्र भयानक होता है । वेश्या अगर व्यात्री है तो कुशीला गोमुखव्यात्री है। सम्भव है कोई स्त्री जन्मभर कुशीला न रहे । परन्तु यह भी मम्भव है कि कोई श्री जन्ममर वेश्या न रहे । जब तक कोई कुशीला या वेश्या है, तभी तक उसकी आत्मा का विचार करना है। आक्षेप (ख)-प्रश्न में मायाचार की दृष्टि से अन्तर पूछा गया है अतः पाप-कार्य की दृष्टि से अन्तर बतलाना प्रश्न के बाहर का विषय है । ( विद्यानन्द) समाधान-हमने कहा था कि, "जब हम वेश्यासेवन और परस्त्रीसेवन के पाप में अन्तर यतला सकते हैं तब दोनों के मायाचार में भी अन्तरवतला सकने हैं।" इसमें अन्य पाप से मायाचार का पता नहीं लगाया है. परन्तु अन्य पाप के समान मायाचार को भी अपने ज्ञान का विषय बनलाया है। यह भूल तो श्राक्षेपक ने स्वयं की है। उनने लिखा है-"व्यभिचार एक पाप-पथ है । उसपर जो जितना आगे बढगया वह उतना ही अधिक सर्व दृष्टि से पापी एवं महामायावी है।' पाप के अन्तर से माया का अन्तर दिखला कर धानेपक वय विषय के बाहर गये हैं। श्राप (ग)-सव्यसाची ने श्रान्तरिक मावों का निर्णय
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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