SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७६ ) 1 वाली सन्तान ( क ) छिपाकर नदी में न बहावी जाती। हम कह चुके हैं कि व्यभिचार से जो सन्तान पैदा होती है वह नाजायज़ कहलाती हैं और विवाह से जो सन्तान पैदा होती हैं वह जायज कहलाती है । कर्णं नाजायज सन्तान थे, इसलिये वे बहादिये गये । और इसीलिये पाण्डु कुन्ती का प्रथम संयोग व्यभिचार कहलाया न कि गान्धर्व विवाह । श्रय हमें देखना चाहिये कि वह कौनसा कारण हैं जिससे कुन्नी के गर्भ से उत्पन्न कर्ण तो नाजायज कहलाये, किन्तु युद्धिष्ठिर श्रादि जायज़ कहलाये, श्रर्थात् जिस ससर्ग से कर्ण पैदा हुए वह व्यभिचार कहलाया श्रीर जिससे युद्धिष्ठिर पैदा हुए वह व्य विचार न कहलाया । कारण स्पष्ट है कि प्रथम संसर्ग के समय विवाह नहीं हुआ था और द्वितीय ससर्ग के समय विवाह हो गया था । इससे बिलकुल स्पष्ट है कि विवाह से व्यभिचार का दोष दूर होता है । इसलिये विवाह के पहिले किसी विधवा से संसर्ग करना व्यभिचार है और विवाह के वाद (विधवाविवाह होने पर) संसर्ग करना व्यभिचार नहीं है । श्राक्षेपक के कथनानुसार अगर पागडु कुन्ती का प्रथम सयोग गान्धर्व विवाह था तो कर्ण नाजायज़ संतान क्यों माने गये ? उनको छिपाने की कोशिश क्यों की गई ? कृष्णजी ने भी रुक्मणी का हरण करके देवनक पर्वत के ऊपर उनके साथ गान्धर्व विवाह किया था, परन्तु रुक्मणीपुत्र प्रद्युम्न तो नहीं छिपाये गये। दूसरी बात यह है कि जब पाण्डु कुन्तीका गांधर्वविवाह हो गया था तो उनके माता पिता ने कुन्ती का दूसरी are faare ( पुनर्विवाह ) क्यों किया ? क्या विवाहिता का विवाह करना भी माना पिता का धर्म है ? और क्या तत्र भी वह कन्या बनी रही ? यदि हाँ, तो विधवा का विवाह करना
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy