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________________ ( 48 ) दोनों मरका सोलह वर्ग में देव हुए. (इस घटना से नरक के ठेकेदार पंडितों वडाकट होना होगा। इस पर श्राक्षे. पक का कहना है कि वह स्वर्ग गई मां श्रेष्ट-मार्ग के अवलंबन से गई.परन्तु इममे इतना तो मालूम होगया कि परस्त्रीसवी को श्रेष्ठमार्ग अवलम्बन करने का अधिकार है-व्यभिचारिणी म्त्री भी पार्यिका के व्रत ले सकती है। उसका यह कार्य धर्मः विरुद्ध नहीं है । अन्यथा उसे अच्युन वर्ग में देवत्व कैसे प्राप्त होता? हमारा यह कहना नहीं है कि विवाह करने से ही कोई स्वर्ग जाता है। स्वर्ग के लिये तो नदनुरूप श्रेष्ठ मार्ग धारण करना पडेगा । हमारा कहना तो यही है कि विधवाविवाह कर लेने से श्रेष्ठ मार्ग धारण करने का अधिकार या योग्यता नहीं छिन जाती। अापकों का कहना तो यह है कि पुनर्विवाह वाला मम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, परन्तु मधु के दृष्टान्त से तो यह सिद्ध होगया कि पुनर्विवाह वाला तो क्या, परस्त्रीसेवी भी सम्पत्ती ही नहीं, मुनि तक बन सकता है। प्रश्न तीसरा "विधवाविवाह से निर्यञ्च और नरकगतिका वध होना है या नहीं"-इस तीसरे प्रश्न के उत्तर में हमने जो कुछ कहा था उस पर आक्षेपकों ने कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिसका उत्तर दिया जाय ? श्रापकों ने यार बार यही दुहाई दी है कि विधवाविवाह धर्म विरुद्ध है, व्यभिचार है, इसलिये उस से विसंघाद कुटिलता है, उससे नरक तिर्यञ्चगति का बन्ध है। लेकिन इस कधनमें अन्योन्याश्रय दोप है। क्योंकि जब विधवा. विवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो तब उससे विसंवादादि सिद्ध हो ।
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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