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________________ ( ५१ ) [ मोटे ] टाइप में छापते है। इस बात में आक्षेपक को छल गफ दिने भूत नजर आ रहे है । यह पागलपन नही तो या है ? नारा आक्षेपक ऐम ऐस जबरदस्त ( १ ) से विधवाविवाह का गठन करने चला है । नर्क (!) कन्या के विषय में इतना लिखा जाचुका है कि व और लिखने की जरूरत नहीं है। सागान्धर्मामृत के निर्दोषा विशेषण पर जो श्राप ने लिया है उसका समाधान 'ग' में किया गया है। आक्षेप (द) - शायद यात्री करुणानुयोग का लक्षण भी नहीं मालूम है। कही करुणानुयाग में गृहस्य चारित्र की आप भी देखने में भाई है। वरुणानुयाग में तो लोकातो विभाग आदि का वर्णन रहता है। करुणानुयोग श्रीर आगा गा गा ? * समाधान- इस श्राप से मालुम होता है कि शाक्षेपक श्री शास्त्रमान श्रम और है । पाठशालाश्री के छोटे २ तुन्द्र जितना ज्ञान रखते है उतना ज्ञान वेचारे श्रापकका मिला है और उसी के बल पर वह अपने कान समझता है ! शासक हम मलाह देते है कि वह मात्रमार्गप्रकाश क आठये अधिकार में करुणानुयोग का प्रयोजन" और "करुणा नुयोग के व्याग्यान की पद्धति' नामक विवेचनों का स्वाध्याय वर जाय । वहाँ के कुन उद्धरण हम यहाँ नीचे देत है :-- $ f "बहुरि करुणानुयोग विषे जीवन की वा कर्मनि की विशेषता वा त्रिलोकादि की रचना निरूपण करि जीवन का धर्मविष लगाये है । जे जीव धर्मविषै उपयोग लगाया चाहें, ते जीवन का गुणस्थान मार्गणा आदि विशेष पर कर्मनि का कारण अवस्था फल कौन कौन क कैसे कैसे पाइये, इत्यादि 1 i
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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