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________________ (१२) उसका उपदेश देना व्यर्थ है। जैसे जिमने सिह नहीं देखा वह करता शूरता वाले व्यक्ति को ही सिंह समझ जाता है, उसी प्रकार जो निश्चय ( वास्तविक ) को नहीं जानता वह व्यवहार (अवास्तविक ) को ही निश्चय समझ जाता है । जो व्यवहार और निश्चय उन दोनों को समझकर मध्यस्य होना है, वही उपदेश का पूर्ण फल प्राप्त करता है। मतलब यह कि व्यवहार चारित्र, वास्तव में चारित्र नहीं है वह तो चारित्र के प्राप्त करने का एक जरिया है, जो कि अल्पबुद्धि वालों को समझाने के लिये कहा गया है। हाँ, यहाँ पर प्राचार्य यह भी कहते हैं कि मनुष्य को एकान्तवादी न बनना चाहिये। यही कारण है कि हमने अनेकान्त रूप में विवाह का विवेचन किया है। अर्थात् वारतविकता की दृष्टि से (निश्चयनय से) विवाह धर्म नहीं है, क्योंकि वह प्रवृत्तिरूप है और उपचार से धर्म है । परन्तु यह उपचरित धार्मिकता सिर्फ कुमारी विवाह में ही नहीं है विधवाविवाह में भी है । क्योंकि दोनों में परस्त्री अर्थात् अविवाहित स्त्री से निवृत्ति पाई जाती है । पाठक देखेंगे कि हमारा विषेचन कितना शास्त्रसम्मत और अनेकान्त से पूर्ण है, जबकि आक्षेपक बिल्कुल व्यवहारैकान्तवादी बनगया है। इसीलिये "प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है" निश्चयनय के इस कथन को यह सर्वथा (१) असगत समझता है? हमने विवाह को उपचरित धर्म सिद्ध करने के लिये कथचिनिवृत्यात्मक सिद्ध किया था। जिस प्रकार किसी मनुज्य को शेर कहने से वह शेर नहीं होजाता, किन्तु शेर के कुछ गुणों की कुछ समानता उसमें मानी जाती है, उसी प्रकार व्यवहार चारित्र, चारित्र न होने पर भी उनमें चारित्रको कल समानता पायी जाती हैं। चारित्रमें तो शुभ और अशुभ दोनों
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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