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________________ विधवाविवाह से सहमत न थे, परन्तु जब विधवाविवाह का वे खण्डन नहीं करते और विधवाविवाह आदि के समर्थक वाक्य को उद्धत करते हैं तो मूर्ख से मर्ख भी कह सकता है कि सोमदेव जी विधवाविवाह के पक्षपाती थे। दूसरी बात यह है किस्मृति शब्द से अर्जनों के धर्मशास्त्र ही ग्रहण नहीं किये जा सकते । जैनशाग्य भी श्रति स्मृति श्रादि शब्दों से कहे गये हैं, जैमाकि नादिपुगण के ४४ वे पर्व में कहा गया है मनातनोऽस्ति मार्गोऽयम् श्रतिस्मृतिप भापितः। विवाहविधि भेटेषु बरिष्टोहि त्रयवरः ॥४॥३२॥ यहाँ पर जैन शास्त्रों का उल्लेख अनि स्मृति शब्द ने दुआ है । और भी अनेक स्थानों पर ऐमा ही शब्द व्यवहार देखा जाता है। मनलब यह कि नीतिवाक्यामृत में जो स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थक वाक्य पाया जाता है उससे लोमदेव जी तो पुनर्विवाह समर्थक ठहरते ही है. साथ ही अन्य जैनाचार्यों के द्वागमी इसका ममर्थन होता है। ऐसे सोमदेवाचार्य के यशस्तिलक के श्लोक से विधवाविवाह का विरोध सिद्ध करने की कुचेष्टा करना दुनाहम नहीं तो क्या है ? पाठक अब जरा अकीनि के वाक्य पर विचार करें। जय मुलीचगाने जयकुमार को वर लिया तब अर्ककीर्तिके मित्र दुर्मर्पण ने अर्कक्रीन को समझाया रत्न ग्लेप कन्यैव तत्राप्येच कन्यका ।। तत्त्वां स्वगृहमानीय दौष्ट्य पश्यास्य दुर्मतेः ॥४४॥५॥ रत्नों में कन्यारत्न ही श्रेष्ठ है; उसमें भी यह कन्या (पाठक यह भी खयाल रक्खे कि जयकुमार को वर लेने पर भी सुलोचना कन्या काही जा रही है) और भी अधिक श्रेष्ठ है। इसलिये तुम उसे अपने घर लाकर उस दुर्बुद्धि की दुटता देखो (बदला लो)।
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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