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________________ ( २६ ) दूमरा देय प्राप्त कर लेती है। इनना ही नहीं, दूसरे देव को प्राप्त काम की लालमा इतनी बढ़ जाती है कि वे थोडी देर मी शान्त न बैठ कर केवली भगवान के पास पूछने जाती है। केवली भगवान भी दूसरे पति के विषय में उत्तर देते हैं। अगर दूसरे पति को ग्रहण करना पाप हाना नो वे देवियाँ धर्म श्रवण करने के बाद केवली भगवान में ऐसा प्रश्न न करती । और न केवली भगवान् के पाम से इस का उत्तर मिलता । जब केवली भगवान् ने उन्हें धर्म मुनाया तो उसमें यह बात क्यों न सुनाई कि दूसग पति करना पाप है ? क्या इससे यह बात साफ नहीं हो जाती कि जैनधर्म में विधवा. विवाह को वही स्थान प्राप्त है जो कुमारीविवाह को प्राप्त है। इतने पर भी जो लोग विधवाविवाह को धर्मविरुद्ध समझते हैं वह पुरुप मदोन्मत्त, मिथ्यादृष्टि नहीं तो क्या है ? देवांगना दूसरी गति में हैं और उनके शरीर में ग्स रक्तादि नहीं है, तो क्या हुभा ? जैनधर्म ना सब जगह है। मिथ्यात्व और दुगचार शरीर के विकार नहीं, आत्मा के विकार हैं। इस लिये शरीर की गुणगाथा से अधर्म, धर्म नहीं बन सकता । यहाँ धर्म अधर्म की मीमांसा करना है, हाड मॉस की नहीं। हाड मांस तो सदा अपवित्र है, वह न तो पुनर्विवाह से अप. वित्र होता है और न पुनर्विवाह के बिना पवित्र। अगर यह कहा जाय कि देवगति में ऐसा ही रिवाज है, इसलिये वहाँ पाप नहीं माना जाता; विधवा देवियों को ग्रहण करने वाले भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं और दूसरे देव को ग्रहण करने वाली देवियों, स्त्री होने से क्षायिक सम्यक्त्व तो नहीं पा लकनी, परन्तुवाकी दोनों प्रकार के सम्यक्त्व प्राप्तकर सकती है। यदि रिवाज होने से देवगति में यह पाप नहीं है तो यहाँ भी पुनः विवाह के रिवाज हो जाने पर पाप नहीं कहला सकता।
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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