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________________ ( २३२ ) बात है, परन्तु छेदोपस्थान का विधान न होना दुमरी बात है । ] ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते है । परन्तु इन सबके उत्तर में यही कहा जासकता है कि जिस व्यक्ति में जितनी योग्यता होती है या जिस युग में जैने व्यक्तियों की बहुलता रहती हैं व्यवहार धर्म का रूपभी वैसा ही होता है। हॉ, व्यवहार धर्म हो कैसा भी, किंतु उस की दिशा निश्चय धर्म की ओर रहती है। अगर निश्चय साधकता सामान्य की दृष्टि व्यवहार धम्मं पक कहाजाय तो किसीकी विवाद नहीं है परन्तु वाह्यरूप की दृष्टि से व्यवहार धर्म में विविधता अवश्य होगी। इस कसौटी पर हम विधवाविवाह को कसते हैं। धार्मिक दृष्टि से विवाह का प्रयोजन यह है कि मनुष्य की कामवासना सीमित हो जाय । इस प्रयोजनकी सिद्धि कुमारी विवाह से भी है और विधवाविवाह से भी है । निधय साधकता दोनों में एक समान है । अगर दोनों श्राक्षेपक निश्चर साधकता सामान्य की दृष्टि में रखकर व्यवहार धर्म को एक तरह का माने तो कुमारीविवाह और विधवाविवाह दोनों एक सरीखे ही रहेंगे। दोनों की समानता के विषय में हम पहिले भी बहुत कुछ कह चुके है । आक्षेप ( ख ) - जो लोग श्रजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के शासन में छेदोपस्थापनाका अभाव बतलाते है उनकी विद्वता दयनीय है | ( विद्यानन्द ) समाधान मेरी विद्वत्ता पर दया न कीजिये, दया कीजिये उन बट्टकेर स्वामी की विद्वत्ता पर जिनने मूलाचार में यह बात लिखी है। देखिये -
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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