SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१२) करे तो वह स्त्री धन नहीं पासकनी । उसका स्त्री धन उसके पुत्र ले लें। अगर पुत्रोंके भरण पोषण के लिये ही वह पुनविवाह करे तो वह अपनी सम्पत्ति पुत्रोंके नाम लिख दे। हम नहीं समझते कि इन प्रकरणों में कोई पुनर्विवाहका विधान न देखकर पति के पास जाने का विधान देख सकेगा। इस ग्रन्थ में परदेश में गये हुए दीर्घप्रवासी पति को तो छोड देने का विधान है, उसके पास जाने की तो बात दूसरी है । नीचत्व परदेश वा प्रस्थितो राजकिल्बिपी। प्राणाभिहन्ता पतितस्त्याज्यः क्लीयोऽपित्रा पनि । नीच, दीर्घप्रवासी, राजद्रोही, घातक, पनित और नपुं सक पतिको स्त्री छोड़ सकती है । हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि श्रीलालजी या उनके साथी किसी भी विषय का न तो गहग अध्ययन करते हैं न पूर्वापर सम्बन्ध देखते हैं और मनमाना बिलकुल वेबुनियाद लिख मारते हैं । खैर, अब हम हखप्रवास और दीर्घप्रवास के उद्धरण देते है जिनके कुछ अंश पहिले लेख में दिये जा चुके है। 'हखप्रवासिनशूद्र वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः सवत्सगेत्तर कालमारनप्रजाता, सवत्सराधिकंप्रजाताः॥२६॥ प्रतिविहिताद्विगुणं कालं ॥२७॥अप्रतिविहिता सुखावस्था विभूपुः पर चत्वारिवर्षाण्यष्टौ वाज्ञातयः। ततो यथादत्तमादाय प्रमुञ्चेयुः ॥ २६॥ थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मणों की स्त्रियाँ अगर पुत्रहीन हो तो एक वर्ष और पुत्रवती इससे अधिक समय तक प्रतीक्षा करें । यदि पति आजीविका का प्रवन्ध्र कर गया हो तो इससे दूने समय तक प्रतीक्षा करें। जिनकी आजीविका का प्रबन्ध नहीं है, उनके वंधु बाँधव चार वर्ष या आठ वर्ष तक उनका भरण पोषण करें ।
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy