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________________ (१६७) विधवाविवाह के विगी पण्डिन दमको पूर्ण प्रमाण मानते है, यहाँ नक कि उम पक्ष के मुनिवेपो लाग भी उसे पूर्ण प्रमाण मानने है । जिस प्रकार कुगन पर अपनी श्रद्वा न हाने पर भी किसी मुसलमान को समझाने के लिये कुगन के प्रमाण देना अनुचित नहीं है उसी प्रकार त्रिवर्णाचार का न मानते हुये भी म्पितिपालकों को समझाने के लिये उसक प्रमाण देना अनुचित नहीं है। विवर्णाचार मंदा जगह विधवाविवाह का विधान है और दोनों ही स्पष्ट है गर्भाधाने पुमवन नीमन्तोन्नयन तथा । वधुप्रयशने ग्राडापुनर्विवाहमंडने ॥ --११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादाने नथैव च । कर्मवतेप वै भायां दक्षिणे नृपवेषयेत् ॥ --११७ ।। गर्भाधान पुमवन नीमन्तोन्नयन बधृप्रवेश, विधवाविवाह, कुलदेवीपूजा और कन्यादान के समय स्त्री को दाहिनी पार बैठाये। इस प्रकरण से यह बात बिलकुल मिद्ध हो जाती है कि सोमसेनजी को स्त्री पुनर्विवाह स्वीकृत था। पीछे के लिपिकाग या लिपिकारका को यह बात पसन्द नहीं आई इमलिये उनने 'पगडा' की जगह 'शुद्रा' पाठ कर दिया है । ६० पन्ना. लालजी सोनी ने दोनों पाठों का उल्लन अपने अनुवाद में किया था परन्तु पाछे ल किमी क बहकान में लाकर छपा हुआ पत्र फडवा डाला और उसके बदले दूसग पत्र लगवा दिया। अब वह फटा हुवा पत्र मिल गया है जिससे वास्त. विक बात प्रकट हो गई है। दूसरी बात यह है कि इन श्लोकों में मुनिदान, पूजन, आगिक, प्रनिष्ठा तथा गर्भाधानादि सस्कारों की बात आई है इसलिय यहाँ शह की बात नहीं
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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