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________________ (१६६) नहीं हो सकता इमसे सिद्ध है कि विधवाविवाह का प्रचार जरूर होकर रहेगा । अथवा जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है वे ही जातियाँ अन्त तक रहेंगी रही चिन्ता की बात सो जो पुरुष है उसे तो पुरुषार्थ पर ही नजर रखना चाहिये । कोगे भवितव्यता के भरोसे पर बैठकर प्रयत्न से उदासीन न होना चाहिये। तीर्थकर अवश्य मोक्षगामी होते हैं फिर भी उन्हें मोक्ष के लिये प्रयत्न करना पड़ता है। इसी तरह जैनधर्म पंचमकाल के अन्त तक अवश्य रहेगा परन्तु उसे तब तक रहने के लिये विधवाविवाह का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। यह छूताछूतविचार का प्रकरण नहीं है । इसका विवे. चन कुछ हो चुका है। बहुत कुछ आगे भी होगा। आक्षेप (ङ)-विधवाविवाह से तो बचे खुचे जैनी नास्तिक हो जायेंगे, कौडी के तीन तीन विकेंगे। जैनधर्म यह नहीं चाहता कि उसमें संख्यावृद्धि के नाम पर कूडाकचरा भर जाय । (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपक कूड़ाकचग का विरोधी है परन्तु विधवाविवाह वालों को कूडाकचरा तभी कहा जासकता है जब विधवाविवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । पूर्वोक्त प्रमाणों से विधवाविवाह धर्मानुकूल सिद्ध है इसलिये आक्षेपक की ये गालियाँ निरर्थक हैं। विधवाविवाहोत्पन्न तो व्यभिचारजात है ही नहीं, परन्तु व्यभिचारजातता से भी कोई हानि नहीं है। व्यभिचार पाप है (विधवाविवाह व्यभिचार नहीं है) व्यभिचारजातता पाप नहीं है अन्यथा रविषेणाचार्य ऐसा क्यों लिखते चिन्हानि विटजातस्य सन्ति नांगेष कानिचित् । अनार्यमाचरन् किश्चिनायते नीचगोचर ॥
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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