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________________ ( १५६) आक्षेप (3)-धून हा प्रकार के है-निवृत्तिरूप, प्रय. त्तिरूप । शुभकर्म में प्रवृत्ति करना भी चूत है । यद्यपि यश्चों की शुभकर्म की प्रवृत्ति में काई भाव नहीं रहता. फिर भी वे वती कहे जा सकते है । (विद्यानन्द) समाधान-जब कि वून भावपूर्वक होने है तब वनों के भेद भावशून्य नहीं हो सकते । जीव का लक्षण चेतना, उसके सव भेट प्रभेदों में अवश्य जायगा । जीव के प्रभेद यदि जलचर, थलचर, नभचर है तो इससे नौका, रेलगाही या वायुयान, जीव नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें जीव का लक्षण नहीं जाता । इसलिये भावशून्य कोई कार्य वून का भेद नहीं कहला सकना । जो फल फूल या जल भगवान को चढ़ाया जाता है क्या वह व्रती कहलाता है ? यदि नहीं, तो इसका कारण क्या भावशन्यता नहीं है ? क्या भावशन्य जिनदर्शनादि कार्यों को न कहन वाला एकाध प्रमाण भी आप दे सकते हैं? आक्षेप (च)-सम्कारों को अनावश्यक कहना जैन सिद्धान्त के मर्म को नहीं समझना है । इधर आप संस्कारों से योग्यता पैदा करने की बात भी कहते हैं। ऐसा परस्पर विरुद्ध क्यों कहते हैं ? (विद्यानन्द) __ समाधान-बूत और सस्कारों को एक समझ कर श्राक्षेपक के गुरु ने घार मूर्खता का परिचय दिया था। हमने दोनों का भेद समझाया था जो कि अब शिष्य ने स्वीकार कर लिया है। व्रत और सस्कार जुदे जुदे हैं इसलिये वे 'संस्कार अनावश्यक हैं। यह अर्थ कहाँ से निकल आया, जिससे पर• स्परविरोध कहा जासके ? श्रापक या उसके गुरु का कहना नो यह है कि "कि बाल्यावस्था में भी सस्कार होते है इसलिये वत कहलाया" । इसो मूर्खता को हटाने के लिये हमने
SR No.010349
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year1931
Total Pages247
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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