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________________ - ७८ - का स्वभाव भी ऐसा है। दोनों की शुद्धि के बिना धर्म पुण्य साधन नहीं होता। इस प्रमाण से यह सुस्पष्ट है कि विजातीय स्त्री धर्मपत्नी नहीं हो सकती। यदि कोई विजातीय स्त्री ले आवे तो वह भोगपत्नी या चेटिका ही हो सकती है। भोगपत्नी या चेटिका रखना धार्मिक पुरूषों के लिए निषिद्ध है तो भी यदि कोई चारित्र मोह कर्म के उदय से रखले तो उसे धर्मपत्नी नहीं कहा जा सकता । न उससे उत्पन्न संतति धर्माधिकारिणी होसकती और न वह स्वय भी पति के साथ धर्म कार्यो में सहकारिणी होसकती। जो लोग श्री आदि पुराणोक · शूद शूदेण बोडव्या' आदि लोक से विजाति विवाह का समर्थन करते हैं उन्हें इसे प्रतिलोभ विवाह का विधायक किन्तु क्वचित् ही समझना चाहिये । इतना होने पर भी धर्मज्ञ पुरुषों के लिए इसे कोई मुख्य रूप से विधिमागे नहीं बतलाया है। यह कचित् अवसरागत अपवाद मात्र है। जैन श्रागम ग्रंथ श्रार जाति भेद । जैन सिद्धान्त के आगम ग्रंथों में यत्र तत्र जाति, कुल सजाति आदि का वर्णन आया है जिसको भी दृष्टि बाह्य नहीं किया जासकता क्योंकि जैन वही है जिसकी जैनागम ग्रंथों पर अवि-ल श्रद्वा हो । हमोर जाति पति विरोधो जैन बधु अथवा विद्वान् इन आगम वाक्यों की ओर भी दृष्टिपात करें
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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