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________________ ૪ शूद्रा शूद्र ेण बोढव्या नान्या, तां स्वां च नैगमः | वत्स्वो तां च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिश्च ताः ॥ स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यम्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् । स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीणिरन्यथा ॥ - भावार्थ-शूद्र पुरूष शूद्र स्त्री से ही विवाह करे, अन्य से नहीं, वैश्य पुरुष वैश्य स्त्री के अतिरिक्त शूद्र स्त्री से भी विवाह कर सकता है। क्षत्रिय पुरुष, क्षत्रिय स्त्री के अतिरिक्त वैश्य और शूद्र स्त्री से भी और ब्राह्मण पुरुष ब्राह्मण स्त्री के अतिरिक्त क्षत्रिय वैश्य शूद्र स्त्री के साथ भा । जो इस प्रवृत्ति को छोड़कर अन्य प्रवृत्ति को आचरण करें तो राजा शासक का कर्तव्य है कि उसे दण्ड दे अन्यथा वर्ण संकरता जाती है । वर्ण संकरता बड़ा भारी अपराध है । इस प्रमाण से यह सुम्पस्ट है कि उच्च जाति का पुरुष नीच जाति की स्त्री से संबंध कर यदि विशेष आवश्यकता ही हो तो भोगपत्नी बना सकता है । 'कचित्' शब्द से विशेष आवश्यकता या अनिवार्यता प्रकट होती है । पहले के बड़े आदमी भोगपत्नियां अनेक रखते थे आज भी राजा लोग एवं अन्यान्य भी रखते हैं । भोगवत्नी से उत्पन्न संतति सजातीय एवं सर्वथा शुद्ध भी नहीं कहलाती उनको पिता की संपत्ति का भी पूर्णाधिकार नहीं। जैसे जयपुर के भूतपूर्व नरेश
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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