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________________ कि भारत सर्वथा स्वतन्त्र था। जिस अमेरिका के आदर्श पर भारत चलना चाहता है । उसमें भी रोमन, कैथोलिक, ऐडलीकोन्स, कालविनिस्टस, प्रोटेस्टेंटस, डिस्सेंटर, ह्यगोनोटस, लूथरन्स, वन्नेकरस, यहूदी और नास्तिक जातियां हैं। गरीब, अमीर, मध्यमस्थितिक, किसान, व्यापारी, शिल्पकार, सौदागर, मल्लाह, सिपाही, जुलाहे, बढ़ई, आदि सभी प्रकार के लोग हैं, फिर भी वह देश स्वतन्त्र है। ज्यों ज्यों जाति भेद मिटाने को कहा साता है त्यों त्यों ही जाति भेद उलटा पनपता है। कांग्रेसी लोगों अथवा पाश्चात्य प्रवाहित सुधारवादियों ने जाति भेद मिटाने को कहा तो यवनों ने यह समझा कि हमारा तो अल्प संख्या के कारण अस्तित्व ही रहने वाला नहीं है, तब उन्होंने पृथक् निर्बाचन की नीव डलवाकर भारत का बंटवारा कराया । यदि अंग्रेजी राजनीति के चक्कर में न पड़कर यह कहा जाता कि स्वतन्त्रता मिलने पर किसी की जाति और धर्म पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायगा। अपनी २ जाति और धर्म के उत्थान में सब स्वतन्त्र रहेंगे तो यवनों को अपने विनाश की न चिन्ता होती और न वे वंटवारा ही कराते । आज भी जो भारत में गृह कलह मच रही है उसकी भूल में वास्तव में देवा जाय तो जाति धर्म भेद के मिटाने की भावना और प्रवृत्ति ही कारण है । भारतवासी यवन आज भी इसी बात से सशंक हैं तो सिक्ख अथवा और कोई जाति वाले भी शंकित हैं कि हमारी
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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