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________________ - २० - इसलिए यही स्पष्टार्थ है ज्ञान प्राप्ति तो सर्वथा उचित और उपादेय है परन्तु ज्ञान मद उपादेय ओर कर्तव्य नहीं । ज्ञानमद न करने का अर्थ यह है कि अपने साधारण ज्ञान के आगे दूसरों के ज्ञान का अपमान अथवा तिरस्कार मत करो। संसार में सभी ज्ञानवान हैं और सभी अज्ञानी हैं। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक विषय को पूर्णत. कभी नहीं जान सकता । जो जिस बात को नहीं जानता है वही उसमें अज्ञानी है इसीलिए आचार्योका कहना है कि किसी का भी अपमान न करो। इसी प्रकार धन मद छोडने का यह अर्थ है धन पाकर धन का अभिमान मत करो । यह नहीं कि उस धन को ही नष्ट कर दिया जाय । इसी प्रकार अन्यान्य बल शरीर आदि का भी मद ही त्याज्य है. वे चीजे नहीं कि जिनका मद छोडना बतलाया गया है. अगर किसी का विनय भी नहीं करना है तो अविनय भी मत करो, मध्यस्थही रहो । योग्यता, श्रादेय की इच्छा से आती है, उपेक्षा से नहीं । इसी प्रकार जातिमद न करने का अर्थ यह है कि चाहे कोई व्यक्ति किसी जाति पांति का हो, अपमान का भाव भी उसके प्रति मत करो ओर सभी को अपने २ कार्य के लिए अपनी २ जगह पर आवश्यक समझो जैसे कि हाथ पांव नाक कान शिर सब एक शरीर के अंगो पांग हैं। एक का एक के बिना नहीं चलता तो भी पांव की जगह पांव ओर मस्तक की जगह मस्तक है । एक ही शरीर के अंग होने के कारण इन मे अभेदभी है और भेद भी इस लिए है कि मस्तक की बजाय पांव से किसी का अभिवादन नहीं किया जा सकता । जैसे एक
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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