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________________ ये सब भेद होते हैं और निश्चय दृष्टि में भेद भावना का निरसन हो जाता है । शुद्ध निश्चय दृष्टि में ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय यह त्रयात्मक मति भी नहीं रहती। ऐसी अवस्था मे यदि कोई मानव प्रतिक्रमण को अनावश्यक और अव्यवहार्य समझ बैठे तो कितना अनर्थ होजाय ? क्या यह अपेक्षित हो सकता है कि मुनिराज प्रतिक्रमण न करे ? यदि षडावश्यक छोड दिये तो मुनित्व कैसे रहे ? आज कल उपादान और निमित्त की चर्चा खूब चलती है। अध्यात्मवादी प्रायः व्यवहार शून्य अध्यात्म निष्ठा में फंस ब्यावहारिक निमित्त साधनों को अनावश्यक अकिंचित् और अव्यवहार्य समझने लगे हैं। चाहे, अन्यान्य विषयभोगादि आजीविकोपार्जन धन संग्रहादि कार्य स्वच्छंदता और अनर्गलता पूर्वक करते रहें परन्तु भगवदर्शन, पूजा, अभिषेक आदि निमित्त साधनों की अवहेलना कर छोड़ते जाते हैं । निश्चय दृष्टि का पात्र कौन है और निश्चय दृष्टि को किस समय और किस के लिए उपादेय है यह नहीं सोचा जाता । सोचा भी क्यों जाय ? क्यों कि चारित्र पालन करना पड़े ? इसी प्रकार जाति व्यवस्था के संबंध में भी स्वार्थ मयी विचार धारा आज कल काम कर रही है क्यों कि जाति व्यवस्था बनी रहने से अनर्गल स्वच्छदता में परम वाधा उपस्थित होती है इसी लिए एक ब्राह्मण, केवल ब्राम्हण के घर पर जन्म लेने मात्र से सत्य शौचादिहीन
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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