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________________ - १५ - दिगंवरत्व के प्रतीक भी थे परन्तु उन्होंने आचरण हीन केवल नग्नत्व का विरोध किया है । यथा " णग्गो पाबइ दुकखं रणगो संसार सागरे भम।" अथात्--केवल नग्न रहने वाला दुःख पाता है और वह संसार में भ्रमता है। यहां आवरणहीन केवल नग्न रहने और फिरने वाले को लक्ष्य में रख कर कहा गया है परन्तु नग्न दिगंवरत्व का विरोध करने वाले इस वा पारा से अनुचित लाभ उठाकर जनता को भ्रम में डालने ही रहते हैं और दिगंबर वीतरागी मुनियों की निंदा करते हुए उस वाक्यों के बहाने से उनको अनावश्यकता सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। साधारण जनता पूर्वापर प्रकरण और संदर्भ को जानती नहीं, मूर्ख भी होती है, भावुक ही अधिक होती है। उनके सामने यह गाथा धरदी और मनमाना अथे कर दिया, बस ! वहक जाती है। जहां निश्चय से कथन होता है वहां जितने भी शुभ निमित्त या भेद सूचक कार्य होते हैं उनको हेय बतला दिया जाता है। साधारण जनता, ऐसे अध्यात्म वादी लोगों से ठगी भी जाती है मुनिराज के सामायिकादि छह कर्मो में प्रतिक्रमण नामक कर्म को आचार्य भगवान् कुदकुद स्वामी ने विष रूप बतलाया है परन्तु वह कथन निश्चय दृष्टि से है क्यों कि प्रतिक्रमण में श्रात्मा, शरीर, अपराध और अपराधों का मिथ्या रूप चाहना
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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