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________________ इतिहास १३ ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी और इन्होंने ही उस धर्मकी स्थापना की जिसका मूल अहिंसा है । इसीलिये इन्हें आदि ब्रह्मा भी कहा गया है । जिस समय ये गर्भ में थे, उस समय देवताओंने स्वर्णकी वृष्टि की इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ" भी कहते हैं। इनके समयमें प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गई थी, क्योंकि जिन वृक्षोंसे लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वीमें उगी थीं, उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। तब इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षु-दण्डों से रस निकाल कर खाना सिखलाया । इसलिये इनका वंश इक्ष्वाकुवंश के नामसे प्रसिद्ध हुआ, और ये उसके आदि पुरुष कहलाये । तथा प्रजाको कृषि, असि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन पटकर्मोंसे आजीविका करना बतलाया । इसलिये इन्हें प्रजापति भी कहा जाता है । सामाजिक व्यवस्थाको चलानेके लिये इन्होंने तीन वर्गो की स्थापना की। जिनको रक्षाका भार दिया गया वे क्षत्रिय कहलाये । जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि के कार्य में नियुक्त किया गया वे वैश्य कहलाये । और जो सेवावृत्ति करने के योग्य समझे गये उन्हें शूद्र नाम दिया गया । भगवान ऋषभदेव के दो पत्नियाँ थीं - एक का नाम सुनन्दा था और दूसरीका नन्दा | इनसे उनके सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई । बड़े पुत्रका नाम भरत था । यही भरत इस युगमें भारतवर्षके प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए । १ 'हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि यतस्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चैर्गीर्वाणैर्गीयसे त्वतः ॥ २०६ ॥ आकन्तीक्षुरसं प्रीत्या बाहुल्येन त्वयि प्रभो । प्रजाः प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कीर्त्यसे ॥ २१० ॥' २० पु० स० ८, । - हरि० २ 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिसु कर्मसु प्रजाः ' -स्वयं० स्तो०
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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