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________________ सामाजिक रूप २९७ का मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं।' साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा 'नग्गो पावइ दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ । नग्गो न लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ॥३८॥ अर्थात्-'जिन भावनासे रहित नग्न दुःख पाता है, संसाररूपी सागरमें भटकता है और उसे ज्ञानलाभ नहीं होता।' इस तरह एक ओरके शिथिलाचार ओर दूसरी ओरकी दृढ़ताके कारण संघभेदके बीजमें अंकुर फूटते गये और धीरे-धीरे उन्होंने वृक्ष और महावृक्षका रूप धारण कर लिया। प्रारम्भमें श्वेताम्बरता और दिगम्बरताका यह झगड़ा सिर्फ मुनियों तक ही था, क्योंकि उन्हींकी नग्नता और सवस्त्रताको लेकर यह उत्पन्न हुआ था। किन्तु आगे श्रावकोंकी भी क्रियापद्धतिमें उसे सम्मिलित करके श्रावकोंमें भी झगड़ेके बीच बो दिये गये जो आज तीर्थक्षेत्रोंके रूपमें अपने विषफल दे रहे हैं। इस बातके प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन कालमें दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओंका भेद नहीं था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओंको पूजते थे। मुनि जिन विजयजीने ( जैन हितैषी भाग १३, अंक ६ में) लिखा है "मथुराके कंकाली टीलामें जो लगभग दो हजार वर्षकी प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख है वे श्वेताम्बर कल्पसूत्रकी स्थविरावलोके अनुसार हैं।" - इसके सिवा १७ वीं शताबीके श्वेताम्बर विद्वान पं० धर्मसागर उपाध्यायने अपने प्रवचनपरीक्षा नामक ग्रन्थमें लिखा है___ "गिरनार और शत्रुजयपर एक समय दोनों सम्प्रदायोंमें झगड़ा हुआ और उसमें शासन देवताकी कृपासे दिगम्बरोंकी पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका १. षट् प्राभृता० पृ० २११ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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