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________________ २६६ जैनधर्म वीरके अचेलक मार्गको उठा देनेका ही प्रयास किया गया। तथा उत्तरकालमें साधूके वसपात्रका समर्थन बड़े जोरसे किया गया, यहाँ तक कि नग्न विचरण करनेवाले महावीरके शरीरपर इन्द्रद्वारा देवदृष्य डलवाया गया । जैसा कि पं० वेचरदासजीने भी लिखा है___ "इस समाजके कुल गुरुओंने अपने पसन्द पड़े वस्त्रपात्र वादके समर्थनके लिए पूर्वके महापुरुषोंको भी चीवरधारी बना दिया है और श्रीवर्द्धमान महाश्रमणकी नग्नता न देख पड़े इस प्रकारका प्रयत्न भी किया है । इस विषयके ग्रंथ लिखकर 'वस्त्रपात्र' वादको ही मजबूत बनानेकी वे आजतक कोशिश कर रहे हैं। उनके लिए आपवादिक माना हुआ 'वस्त्र-पात्र' वादका मार्ग औत्सर्गिक मार्गके समान हो गया है। वे इस विषयमें यहाँतक दौड़े हैं कि चाहे जैसे अगम्य जंगलमें, भीषण गुफामें या चाहे जैसे पर्वतके दुर्गम शिखरपर भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुए पुरुष वा स्त्रीको जैनी दीक्षाके लिए शासनदेव कपड़े पहनाता है और वस्त्रके बिना केवलज्ञानीको अमहानती तथा अचारित्री कहते तक भी नहीं हिचकिचाये। कोई मुनी वस्त्ररहित रहे ये बात उन्हें नहीं रुचती । इनके मतसे वस्त्र पात्रके बिना किसीकी गति ही नहीं होती।" दूसरी ओर दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट घोषणा कर दी थी 'ण' वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ अर्थात्-'जिनशासनमें तीर्थङ्कर ही क्यों न होय यदि वह वस्त्रधारी है तो सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता। नग्नता ही मोक्ष १. इसके लिए पाठकोंको लेखकका लिखा हुआ 'भगवान महावीरका अचेलक धर्म' नामक ट्रैक्ट देखना चाहिए । २. षट् प्राभृ० ६७ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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