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________________ ५. जन कला और पुरातत्त्व जैन परम्परा के अनुसार इस अवसर्पिणी कालमें हास होते होते जब भोगभूमिका स्थान कर्मभूमिने ले लिया तो भगवान् ऋषभदेवने जनताके योगक्षेमके लिए पुरुषोंकी बहत्तर कलाओं और स्त्रियोंके चौंसठ गुणोंको बतलाया। जैन अंग साहित्यके तेरहवें पूर्व में उनका विस्तृत वर्णन था, वह अब नष्ट हो चुका है । इससे पता लगता है कि पहले कलाका अर्थ बहुत व्यापक था । उसमें जीवन-यापनसे लेकर जीव- उद्धार तकके सब सत्प्रयत्न सम्मिलित थे । कहा भी है कला बहत्तर पुरुषकी, तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका, एक जीव-उद्धार ॥ जैनधर्मका तो प्रधान लक्ष्य ही जीव उद्धार है। बल्कि यदि कहा जाय कि जीव उद्धारके लिए किये जाने वाले सत्प्रयत्नोंका नाम ही जैनधर्म है तो अनुचित न होगा । इसी से आज कलाकी परिभाषा जो 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की जाती है, अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है, वह जैनकलामें सुघटित है, क्योंकि जैनधर्मसे सम्बद्ध चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकला, सुन्दर होनेके साथ ही साथ कल्याणकर भी है और सत्यका दर्शन कराती है। नीचे उनका परिचय संक्षेपमें दिया जाता है । चकला सरगुजा राज्यके अन्तर्गत लक्ष्मणपुर से १२ मील रामगिरि नामक पहाड़ है वहाँ पर जोगीमारा गुफा है । गुफाकी चौखट पर बड़े ही सुन्दर चित्र अंकित हैं। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टिसे प्राचीन हैं तथा जैनधर्मसे सम्बन्धित हैं । परन्तु संरक्षणके अभावमें चित्रोंकी हालत खराब हो गयी है ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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