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________________ जैन साहित्य २७३ ललितविस्तरा, षड्दर्शन समुच्चय, और समराइच कहा अति प्रसिद्ध हैं। अपने प्रकरण ग्रन्थोंमें इन्होंने तत्कालीन साधुओंकी खरी आलोचना भी की है। ____ अभयदेव (ई०११ वीं शती) यह प्रधुम्नसूरिके शिष्य थे। इन्होंने सिद्धसेनके सन्मतितर्कपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। इस टीकामें सैकड़ों दार्शनिक ग्रन्थोंका निचोड़ भरा हुआ है। संक्षेपमें दिगम्बर परम्परामें अकलंकदेव, विद्यानन्दि और प्रभाचन्दका जो स्थान है वही स्थान श्वेताम्बर परम्परामें मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव सूरिका है। छहों विद्वान दार्शनिक क्षेत्रके जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। हेमचन्द्र ( ई० १३वीं शती) विद्वानोंमें आचार्य हेमचन्द्रको बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह उनका पूर्ण भक्त था। उसके नामपर ही उन्होंने अपना सिद्ध हैम व्याकरण बनाया। उसीका एक अध्याय प्राकृत व्याकरण है जोअति प्रसिद्ध है । आचार्यका जन्म सं० ११४५ में हुआ। नौ वर्षकी अवस्थामें दीक्षा ली और सं० ११६२ में आचार्य पद प्राप्त किया। सं० १२२९ में उनका स्वर्गवास हो गया । न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष आदि सभी विषयोंपर उन्होंने अद्भुत ग्रन्थ लिखे । जयसिंहका उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल तो उनका शिष्य ही था। यशोविजय (ई. १८वीं शती) श्वेताम्बर परम्परामें हेमचन्द्राचार्यके पश्चात् यशोविजय जैसा सर्वशास्त्रपारंगत दूसरा विद्वान् नहीं हुआ। इन्होंने काशीमें विद्याध्ययन किया था और नव्यन्यायके न केवल विद्वान ही थे किन्तु उसी शैलीमें कई ग्रन्थ भी रचे । उनकी जैन तर्कभाषा, ज्ञानबिन्दु, नयरहस्य, नयप्रदीप आदि ग्रन्थ अध्ययन करने योग्य हैं । इनकी विचारसरणि बहुत ही परिष्कृत और संतुलित थी।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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