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________________ १७८ जैनधर्म हैं ही, परन्तु मिट्टीका ढेला स्वयं पृथ्वीकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है । इसी तरह जलविन्दुमें यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोंके अनिरिक्त वह स्वयं जलकायिक जीव के शरीरका पिण्ड है । ऐसे ही अग्नि आदिके सम्बन्ध में भी समझना चाहिये । इन जीवों को स्थावर जीव कहते हैं। और जो जीव चलते फिरते दिखाई देते हैं, जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े वगैरह, वे मत्र त्रस कह जाते हैं। इन दोनों प्रकार के जीवोंमेंसे गृहस्थ स्थावर जीवों की रक्षाका तो यथाशक्ति प्रयत्न करता है, और बिना जरूरत न पृथ्वी खांदता है, न जलको खराब करता हैं, न आग जलाता है, न हवा करता है और न हरी साग सब्जीको या वृक्षोंको काटता है । तथा त्रस जीवोंकी केवल संकल्पी हिंसाका त्याग करता है । इस हिंसाका त्याग कर देनेसे उसके सांसारिक जीवनमें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं होती; क्योंकि संकल्पी हिंसा मनोविनोदके लिये या दूसरोंको मारकर उसके माँसका भक्षण करनेके लिये की जाती है । खेद है कि मनुष्य 'जिओ और जीने दो' के सिद्धान्तको भुलाकर दिलबहलाव के लिये जंगलमें निर्द्वन्द विचरण करनेवाले पशु पक्षियोंका शिकार खेलता है और उनके माँससे अपना पेट भरता है । यदि मनुष्य ऐसा करना छोड़ दे तो उससे उसकी जीवनयात्रामें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं होती । मनुष्यके दिलबहलाव के साधनोंकी कमी नहीं हैं और पेट भरनेके लिये पृथ्वीसे अन्न और हरी साग सब्जी उपजाई जा सकती है जिससे तरह तरहके स्वादिष्ट भोजन तैयार हो सकते हैं । आजके युगमें वैज्ञानिक साधनोंसे सब जगह खाद्यान्न उपजाया जा सकता है और अनावश्यक जानवरोंकी पैदायशको भी रोका जा सकता है । यदि मनुष्य यह संकल्प करले कि हम अपने लिये किसी जीवकी हत्या न करेंगे तो वह दूसरी दिशामें और भी अधिक उन्नति कर सकता हैं । फिर मांसाहार मनुष्यका प्राकृतिक भोजन भी नहीं है,
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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