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________________ १२ चारित्र १७७ कि उससे कमसे कम जीवोंका कमसे कम अहित होना हो । जो मनुष्य इस तरह की सावधानी रखना है वह अहिंसक है । अहिंसाको व्यवहार्य बनानेके लिये जसे हिंसाके द्रव्यहिंसा और भावहिंसा भेद किये गये हैं, वैसे ही अहिंसाके भी अनेक भेद किये गये हैं । सबसे प्रथम तो गृहस्थ और साधुकी अपेक्षासे अहिंसा दो भागों में बाँट दी गई है। गृहस्थकी अहिंसाकी सीमा जुदी है और साधुकी अहिंसाकी सीमा जुदी है। जो एकके लिये व्यवहार्य है वही दूसरेके लिये अव्यवहार्य है, क्योंकि दोनोंके पढ़ और उत्तरदायित्व विभिन्न हैं । दूसरे, गृहस्थकी दृष्टिसे भी उसके अनेक प्रभेद किये गये हैं । यदि उन सीमाओं और भेद प्रभेदोंको भी दृष्टिमें रखकर जैनी अहिंसाको देखा जाये तो हमें विश्वास है कि उसपर अव्यावहारिकताका दोषारोपण नह किया जा सकेगा । गृहस्थकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी और विरोधी । बिना अपराधके जान बूझकर किसी जीव का वध करनेको संकल्पी हिंसा कहते हैं । जैसे, कसाई पशुवध करता है । जीवन निर्वाह के लिये व्यापार खेती आदि करने, कल कारखाने चलाने तथा संनामें नौकर होकर युद्ध करने आदिमें जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं । सावधानी रखते हुए भी भोजन आदि बनाने में जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी हिंसा कहते हैं । और अपनी या दृमरोंकी रक्षा के लिये जो हिंसा करनी पड़ती है उसे विरोधी हिंसा कहते हैं । जैनधर्म में सब संसारी जीवांको दो भेदोंमें बाँटा गया है एक स्थावर और दूसरा त्रस । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदिके अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव हैं। मिट्टी में कीड़े आदि जीव तो
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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