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________________ चारित्र १६७ होते थे। वैयक्तिक सम्पत्तिवादका तब जन्म नहीं हुआ था। अतः विषमता भी नहीं थी। प्राकृतिक साम्यवाद था। न कोई छोटा था और न कोई बड़ा। न कोई अमीर था और न कोई गरीब । न कोई शासक था और न कोई शास्य । किन्तु पीछे प्रकृतिने पलटा खाया, आवश्यक वस्तुओंका यथेष्ट परिमाणमें मिलना बन्द हो गया। मनुष्योंमें असन्तोष और घबराहट पैदा हुई । उससे संचयवृत्तिका जन्म हुआ। फलतः विपमता बढने लगी और उसके साथ-साथ अपराधोंकी भी प्रवृत्ति हो चली। सुखका स्थान दुःखने ले लिया। तब भगवान ऋपभदेवका जन्म हुआ। उन्होंने लोगोंको असि, मषी, कृषि, शिल्प, सेवा और व्यापारके द्वारा आजीविका करनेका उपदेश दिया तथा अपने प्रत्येक कार्यमें अहिंसामूलक व्यवहार करनेका उपदेश देकर अहिंसाको ही धर्म बतलाया और उस अहिंसा धर्मको रक्षाके लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार अन्य धोका पालन भी आवश्यक बतलाया। ये पाँच यमरूप धर्म ही जैनाचारका मूल है इसीको एकदेशसे गृहस्थ पालते हैं और सर्वदेशसे मुनि पालते हैं। ___ चारित्र या आचारका अर्थ होता है आचरण । मनुष्य जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है वह सब उसका आचरण कहलाता है। उस आचरणका सुधार ही मनुष्यका सुधार है और उसका बिगाड़ ही मनुष्यका बिगाड़ है। मनुष्य प्रवृत्तिशील है और उसकी प्रवृत्तिके तीन द्वार हैं-मन, वचन और काय । इनके द्वारा ही मनुष्य अपना काम करता है और इनके द्वारा ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके परिचयमें आता है। यही वे चीजें हैं, जो मनुष्यको मनुष्यका दुश्मन बनाती हैं और यही वे चीजें हैं जो मनुष्यको मनुष्यका मित्र बनाती हैं। यही वे चीजें हैं जिनके सत्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं सुखी हो सकता है और दूसरोंको मुखी कर सकता है और यही वे चीजें हैं, जिनके दुष्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं दुःखी होता है और दूसरोंके दुःखका
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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