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________________ जैनधर्म सन्मार्गपर कोई अपवाद आता हो तो उसे भी दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे लोकमें सन्मार्गकी निन्दा न हो। छठे, स्वयं या कोई दूसरा मनुष्य सन्मार्गसे डिगता हुआ हो, किसी कारणसे उसका त्याग कर देना चाहता हो तो अपना और उसका स्थितिकरण करना चाहिये । सातवें, अपने सहयोगियोंसे, और अहिंसामयी धर्मसे अत्यन्त स्नेह करना चाहिये। आठवें, जनतामें फैले हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करके अहिंसामयी धर्मका सर्वत्र प्रसार करते रहना चाहिये । ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं, जिनका होना जरूरी है। इसके सिवा सम्यग्दृष्टिको अपने ज्ञान, तप, आदर-सत्कार, बल, ऐश्वर्य, कुल, जाति और सौन्दर्यका मद नहीं करना चाहिये । मद बहुत बुरा है । जो कोई मदमें आकर अपने किसी भी सहधर्मीका अपमान करता है, वह अपने धर्मका ही अपमान करता है, क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्मकी स्थिति नहीं हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्ज्ञानी होकर जीवको आगे बढ़नेका प्रयत्न करना चाहिये। इतनी भूमिका तैयार किये बिना अहिंसा धर्मरूपी उस महावृक्षका अंकुरारोपण नहीं हो सकता, जिसके शान्तरससे परिपूर्ण सुस्वादु मधुरफल मुक्तिके मार्गमें पाथेयका काम देते हैं और जिसकी शीतल सुखद छायामें यह सचराचर विश्वयुद्धोंकी विभीषिकासे त्रस्त और आकुल यह संसार, शान्तिलाभ कर सकता है । अब रहा सम्यक्चारित्र या आचार । ३. चारित्र या आचार प्रारम्भमें जैनधर्मका आरम्भकाल बतलाते हुए यह बतलाया है कि जैनशास्त्रोंके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीकालके प्रारम्भमें जब यहाँ भोगभूमि थी, उस समय यहाँ कोई भी धर्म नहीं था । सब मनुष्य सुखी थे। सबको आवश्यकताके अनुसार आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती थीं। मनुष्य संतोषी और सरल
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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