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________________ १५. जैनधर्म बाहरमें जिस वस्तुका सहारा पाकर सुख उत्पन्न होता है, अज्ञानसे मनुष्य उसे ही सुख समझ बैठता है । परन्तु वास्तवमें बाहिरी वस्तु न स्वयं सुख है और न सुखका साधन ही है। शरीरमें उत्पन्न होनेवाले विकारोंकी क्षणिक शान्तिके उपायोंको मनुष्य भ्रमसे सुखका साधन मानता है, किन्तु वास्तव में वे सुखके साधन नहीं हैं, बल्कि शारीरिक विकारोंके प्रतीकारमात्र हैं, जैसा कि भर्तृहरिने भी लिखा है "तृषा शुष्यत्यास्ये पिवति सलिलं स्वादु सुरभि क्षुधातः सन् शालीन् कवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढ़तरमालिङ्गति वधू प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥' अर्थात्-'जब प्याससे मुख सूखने लगता है तो मनुष्य सुखन्धित स्वादु जल पीता है । भूखसे पीड़ित होनेपर शाक आदिके माथ भात खाता है । कामाग्निके प्रज्वलित होनेपर पत्नीका आलिंगन करता है। इस प्रकार रोगके प्रतीकारोंको मनुष्य भूलसे सुख मान रहा है।' सारांश यह है कि बाह्य वस्तुओंके संग्रहका उद्देश्य केवल शरीर और मनके अन्दर उत्पन्न होनेवाली दुःखजनित चंचलता. को मिटाना मात्र है। सच्चा सुख तो अपने अन्दरसे स्वतः विकसित होता है, वह बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं करता। उसके लिये नगर और वन, स्वजन और परजन, महल और श्मशान तथा प्रिया की गोद और शिलातल सब समान हैं । अतः न अर्थ सुखका साधन है और न काम, किन्तु इच्छाका निरोध ही सच्चे सुखका साधन है । जो इस सत्यको नहीं समझते वे इच्छाको न रोककर इच्छाके अनुकूल पदार्थ प्राप्त करके सुखी होनेका प्रयत्न करते हैं, किन्तु एक इच्छाके पूरी होनेपर दूसरी इच्छा उत्पन्न होती है और इस तरह इच्छाका स्रोत बहता रहता है। सब इच्छाएँ किसीकी पूरी नहीं होती, और यदि हो भी जाएँ तो
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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