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________________ चारित्र १५९ सुखका स्थान नहीं है। यदि हम अपनेसे बाहर अन्य पदार्थोंमें सुखकी खोज करते रहें तो हमें कभी भी सुख नहीं मिल सकता। यह सत्य है कि इन्द्रियोंके भोग हमसे बाहर इस संसारमें विद्यमान हैं, किन्तु उनमेंसे कोई भी स्वयं सुख नहीं है। उदाहरणके लिये, एक व्यापारीको तार द्वारा यह सूचना मिलती है कि उसे व्यापारमें बहुन लाभ हुआ है। सूचना पाते ही वह आनन्दमें निमग्न हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि तार द्वारा सूचना मिलते ही उसके हृदयमें जो आनन्द हुआ वह कहाँसे आया? क्या वह उस तारके कागजसे उत्पन्न हुआ जिसपर सूचना लिखी थी ? नहीं, क्योंकि यदि उस कागजपर हानिकी सूचना लिखी होती तो वही कागज उसी व्यापारीके दुःखका कारण बन जाता। शायद आप कहें कि उस तारक कागजपर जो वाक्य लिखे हुए थे उनमें सुख विद्यमान था। किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उन वाक्योंमें सुख है तो जो कोई उन वाक्योंको पढ़े या सुने उन सभीको सने सुख होना चाहिये, मगर ऐसा नहीं देखा जाता। शायद कहा जाये कि उन वाक्योंका सम्बन्ध उसी व्यापारीसे है अतः उनसे उसीको सुख होता है दूसरोंको नहीं । किन्तु यदि उस व्यापारीको उस तारको सत्यतामें सन्देह हो तो उन वाक्योंसे उसे भी तब तक सुख नहीं होगा जब तक उसका सन्देह दूर न हो। इसके सिवा एक ही वस्तु किसीके सुखका साधन होती है और किसीके दुःखका साधन होती है । तथा एक ही वस्तु कभी सुखका साधन होती है और कभी दुःखका साधन होती है। जैसे, पुत्र जब तक माता-पिताका आज्ञाकारी रहता है तब तक उनके सुखका साधन होता है और जब वही उद्दण्ड हो जाता है तो दुःखका कारण बन जाता है । अतः यदि वाह्य वस्तु सुखस्वरूप होती तो उससे सबको सदा सुख ही होना चाहिये था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः यह मानना पड़ता है कि सुख जीवका ही स्वभाव है, इसलिये वह अन्दरसे ही उत्पन्न होता है। किन्तु
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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