SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्धान्त १५१ I जो जीवको मोहित कर देता है। इसके दो भेद हैं एक जो जीवको सच्चे मार्गका भान नहीं होने देता और दूसरा, जो सच्चे मार्गका भान हो जानेपर भी उसपर चलने नहीं देता । आयुकर्म - जो अमुक समयतक जीवको किसी एक शरीर में रोके रहता है । इसके छिड़ जानेपर ही जीवकी मृत्यु कही जाती है । नामकर्म - जिसकी वजहसे अच्छे या बुरे शरीर और अंगउपाङ्ग वगैरहकी रचना होती है । गोत्रकर्म - जिसकी वजह से जीव ऊँच कुलका या नीच कुलका कहा जाता है । अन्तरायकर्म - जिसकी वजहसे इच्छित वस्तुकी प्राप्तिमें रुकावट पैदा हो जाती है । इन आठ कर्मोंमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहन और अन्तरा ये चार कर्म घातिकर्म कहे जाते हैं, क्योंकि ये चारों जीवके स्वाभाविक गुणोंको घातते हैं। शेष चार कर्म अघाती कहे जाते हैं; क्योंकि वे जीवके गुणोंका घात नहीं करते । इन आठ कर्मोंमेंसे भी ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरणके नौ, वेदनीयके दो, मोहनीयके अट्ठाईस, आयुके चार, नामके तिरानवें, गोत्र के दो और अन्तरायके पाँच भेद हैं । इन भेदोंका नाम और उनका काम वगैरह तस्वार्थसूत्र कर्मकाण्ड आदि ग्रन्थोंमें देखा जा सकता है । घातीकर्म के भी दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती । जो कर्म जीवके गुणका पूरी तरहसे घात करता है उसे सर्वघाती कहते हैं और जो कर्म उसका एक देशसे घात करता है उसे देशघाती कहते हैं। चार घानी कम के ४७ भेदोमंसे २६ देशघाती हैं और २१ सर्वघाती है। घातिकर्म तो पापकर्म ही कहे जाते हैं किन्तु अघातिकर्मक भेदोंमेंसे कुछ पुण्यकर्म हैं और कुछ पापकर्म हैं। जैसे मनुष्यके द्वारा खाया हुआ भांजन पाकस्थली में जाकर रस, मज्जा, रुधिर आदि रूप हो जाता है, वैसे ही जीवके द्वारा ग्रहण किये गये कर्मपुद्गल ज्ञानावरणादि रूप हो जाते हैं। उन कर्मपुद्गलोंका बँटवारा बँधनेवाले कर्मोंमें तुरन्त हो जाता है ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy