SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्त १४१ किन्तु संयोगसे एक जुदी वस्तु है। संयोग तो मेज और उसपर रक्खी हुई पुस्तकका भी है, किन्तु उसे बन्ध नहीं कह सकते । बन्ध तो एक ऐसा मिश्रण ( मिलाव ) है जिसमें रासायनिक ( Chemical ) परिवर्तन होता है। उसमें मिलनेवाली दो वस्तुएँ अपनी असली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती हैं । जैसे दूध और पानीको आपसमें मिला दिये जानेपर न दूध अपनी असली हालतमें रहता है और न पानी अपनी असली हालत में रहता है, किन्तु दूधमें पनीलापन आ जाता है और पानी दूध सा हो जाता है। दोनों दोनोंपर प्रभाव डालते हैं । इसी तरह जीव और कर्मका परस्पर में सम्बन्ध हो जानेपर न जीव ही अपनी असली हालतमें रहता है और न पुद्गल हो अपनी असली हालत में रहते हैं । दोनों दोनोंसे प्रभावित होते हैं । यही बन्ध है । इसका विशेष विवेचन आगे कर्मसिद्धान्तमें किया गया है । आस्रव और बन्ध ये दोनों संसार के कारण हैं । पाँचवा तत्त्व संवर है। आस्रवके रोकनेको संवर कहते है। अर्थात् नये कर्मोंका जीवमें न आना ही संवर है । यदि नये कर्मों के आगमनको न रोका जाये तो जीवको कभी भी कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता । अतः संवर पाँचवा तत्त्व है। छठा तत्त्व निर्जरा है। बँधे हुए कर्मोंके थोड़ा-थोड़ा करके जीवसे अलग होनेको निर्जरा कहते हैं । यद्यपि जैसे जीव में प्रतिसमय नये कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वैसे ही प्रतिसमय पहले बँबे हुए कर्मोंकी निर्जरा भी होती रहती है, क्योंकि जो कर्म अपना फल दे चुकते हैं वे झड़ते जाते हैं । किन्तु उस निर्जरासे कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिलता; क्योंकि प्रतिसमय नये कर्मोंका बन्ध होता ही रहता है, अतः संबरपूर्वक जो निर्जरा होती है, अर्थात एक ओर तो नये कर्मों के आगमनको रोक दिया जाता है और दूसरी ओर पहले बँधे हुए कर्मोंको जीवसे धीरे-धीरे जुदा कर दिया जाता है तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है जो कि सातवाँ तत्त्व है । समस्त
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy