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________________ १४० जैनधर्म सम्बन्धका अन्त किस प्रकार किया जाये यह एक समस्या है, जिसे प्रत्येक मुमुक्षुको हल करना है। धर्म ही वह विज्ञान है जिसके द्वारा उक्त समस्याको हल किया जा सकता है और उसी के हल करनेके लिये उक्त सात बातें बतलाई गई हैं। ये सात वातें ही ऐसी हैं जिनकी श्रद्धा और ज्ञानपर हमारा योगक्षेम निर्भर है । इसीलिये इन्हें तत्त्व-संज्ञा दी गई है। तत्त्व यानी सारभूत पदार्थ ये ही हैं । जो व्यक्ति इनको नहीं जानता,सम्भव है वह बहुत ज्ञान रखता हो, किन्तु यथार्थमें उपयोगी बातोंका ज्ञान उसे नहीं है। ___ उक्त सात तत्त्वोंका नाम है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनमेंसे जीव और अजीव दो मूलभूत तत्त्व हैं, जिनसे यह विश्व निर्मित है । इन दोनों तत्त्वोंका वर्णन पहले कर आये है । तीसरा तत्त्व आस्रव है, जो जीवमें कर्ममलके आनेको सूचित करता है। वास्तवमें जीव और कर्मो का बन्ध तभी सम्भव है जब जीवमें कर्म-पुद्गलोंका आगमन हो । अतः कर्मोके आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं। वह द्वार, जिसके द्वारा जीवमें सर्वदा कर्मपुद्गलोंका आगमन होता है जीवकी ही एक शक्ति है, जिसे योग कहते हैं। वह शक्ति शरीरधारी जीवोंकी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाओंका सहारा पाकर जीवकी ओर कर्मपुद्गलोंको आकृष्ट करती है। अर्थात् हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते हैं, वचनके द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीरके द्वारा जो कुछ हलनचलन करते हैं वह सब हमारी ओर कर्मोके आनेमें कारण होता है । इसलिये तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है कि मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं और वह योग ही आस्रवका कारण होनेसे आस्रव कहा जाता है । अतः आस्रव तत्त्व यह बतलाता है कि कि जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन किस प्रकारसे होता है ? चौथा बन्ध तत्त्व है। जीव और कर्मके परस्परमें मिल जानेको बन्ध कहते हैं । यह बन्ध यद्यपि संयोगपूर्वक होता है
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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