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________________ १०१ जैनधर्म ठहराते हैं। किन्तु चलते हुएको चलनेमें और ठहरते हुएको ठहरनेमें सहायक होते हैं। यदि उन्हें गति और स्थितिमें मुख्य कारण मान लिया जाये तो जो चल रहे हैं वे चलते ही रहेंगे और जो ठहरे हैं वे ठहरे ही रहेंगे। किन्तु जो चलते हैं वे ही ठहरते भी हैं । अतः जीव और पुद्गल स्वयं ही चलते है और स्वयं ही ठहरते हैं, धर्म और अधर्म केवल उसमें सहायकमात्र हैं।' ४. आकाशद्रव्य जो सभी द्रव्योंको स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य अमूर्तिक और सर्वव्यापी है। इसे अन्य दार्शनिक भी मानते हैं। किन्तु जैनोंकी मान्यतामें उनसे कुछ अन्तर है। जैनदर्शनमें आकाशके दो भेद माने गये हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । सर्वव्यापी आकाशके मध्यमें लोकाकाश है और उसके चारों ओर सर्वव्यापी अलोकाकाश है। १. प्रो० धासीराम जैनने अपनी 'कासमोलॉजी ओल्ड एण्ड न्यु' नामकी पुस्तकमें धर्मद्रव्यको तुलना आधुनिक विज्ञानके ईथर नामक तत्त्वसे और अधर्म द्रव्यकी तुलना सर आइजक न्यूटनके आकर्षण सिद्धान्त से की है। क्योंकि वैज्ञानिकोंने 'ईथर' को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य माननेके साथ गतिका आवश्यक माध्यम भी माना है. जैनोंने धर्मद्रव्यको भी ऐसा ही माना है। अधर्मद्रव्य और विज्ञानके आकर्पण सिद्धान्तको तुलना करते हुए प्रोफेसर जैनने लिखा है-यह जैनधर्मके अधर्मद्रव्य विषयक सिद्धान्तकी सबसे बड़ी विजय है कि विश्वकी स्थिरताके लिये विज्ञानने अदृश्य आकर्षणशक्तिकी सत्ताको स्वयंसिद्ध प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीनने उसमें सुधार करके उसे क्रियात्मकरूप दिया। अब आकर्षण सिद्धान्तको सहायक कारणके रूपमें माना जाता है, मूल कर्ताके रूपमें नहीं, इसलिये अब वह जैनधर्मविषयक अधर्मद्रव्यकी मान्यताके बिल्कुल अनुरूप बैठता है ।' पे-४४ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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