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________________ सिद्धान्त और पुद्गल ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। इन दोनों द्रव्योंको जो चलनेमें सहायता करता है वह धर्मद्रव्य है और जो ठहरनेमें सहायता करता है वह अधर्मद्रव्य है। यद्यपि चलने और ठहरनेकी शक्ति तो जीव पुद्गलमें है ही, किन्तु बाह्य सहायताके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नहीं हो सकती। जैसे परिणमन करनेकी शक्ति तो संसारकी प्रत्येक वस्तुमें मौजूद है, किन्तु कालद्रव्य उसमें सहायक है उसकी सहायताके बिना कोई वस्तु परिणमन नहीं कर सकती। इसी तरह धर्म और अधर्मकी सहायताके विना न किसीमें गति हो सकती है और न किसीकी स्थिति हो सकती है। ये दो द्रव्य ऐसे हैं, जिन्हें जैनोंके सिवा अन्य किसी भी धर्मने नहीं माना । दोनों द्रव्य आकाशकी तरह ही अमूर्तिक हैं और समस्त लोकव्यापी हैं। जैसा कि कहा है धम्मत्थिकायमरमं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं । लोगोगाद पुटं पिहुलमसंखादियपदेसं ॥८३॥'-पंचास्ति । 'धर्मद्रव्यमें न रस है, न रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, और न वह शब्दरूप ही है । तथा समस्तलोकमें व्याप्त है, अखंडित है और असंख्यात प्रदेशी है।' 'उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥८॥'-पंचास्ति। 'जैसे इस लोकमें जल मछलियोंके चलनेमें सहायक है वैसे ही धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंको चलने में सहायक है।' 'जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वंमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥८६॥'-पंचास्ति । 'जैसा धर्मद्रव्य है वैसा ही अधर्मद्रव्य है। अधर्मद्रव्य ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंको पृथ्वीकी तरह ठहरनेमें सहायक है।' सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्म द्रव्य प्रेरक कारण नहीं हैं, अर्थात् किसीको बलात् नहीं चलाते हैं और न बलात्
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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