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________________ जैनधर्म कहा जाता है वह परमाणु अविभागी होता है, क्योंकि उसका आदि, अन्त और मध्य नहीं है। इसीलिए उसका दूसरा भाग नहीं होता। जैनदर्शनकी दृष्टिसे द्रव्य और गुणमें प्रदेशभेद नहीं होता। इसलिए जो प्रदेश परमाणुका है वही चारों गुणोंका भी है । अतः इन चारों गुणोंको परमाणुसे जुदा नहीं किया जा सकता । फिर भी जो किसी द्रव्यमें किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती उसका कारण परमाणुका परिणामित्व है, परिणमनशील होनेके कारण हो कहीं किसी गुणकी उद्भूति देखी जाती है और कहीं किसी गुणकी अनुभूति । किन्तु परमाणु शब्दरूप नहीं है। पुद्गलके दो भेद है-परमाणु और स्कन्ध । प्राचीन शास्त्रोंमें परमाणुका म्वरूप इस प्रकार बतलाया है 'अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं व इंदियगेझं। जं दवं अविभागी तं परमाणु वियाणाहि ॥' __ 'जो स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अन्तरूप है, अर्थात् जिसमें आदि, मध्य और अन्तका भेद नहीं है और जो इन्द्रियोंके द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अविभागी द्रव्यको परमाणु जानो।' 'सव्वेसि खंधाणं जो अंतोतं वियाण परमाणू । सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो ॥७७॥'-पंचास्ति० 'सब स्कन्धोंका जो अन्तिम खण्ड है, अर्थात् जिसका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता, उसे परमाणु जानो। वह परमाणु नित्य है, शब्दरूप नहीं है, एक प्रदेशी है, अविभागी है और मूर्तिक है। 'एयरसवण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसदं । खधंतरिदं दवं परमाणुं तं वियाणाहि ॥८१॥'-पञ्चास्ति० 'जिसमें एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श गुण
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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