SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में जाना समझा हूँ परन्तु अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करता हूँ । इसीलिए चिद्विलाससे मैंने मायाको सत् और असत् स्वरूप, अतः अनिर्वचनया माना है । ५ अस्तु, सब लोग इन प्रश्नोंकी गहिराईमें न भी जान चाहें तब भी मैं आशा करता हूँ कि इस सुबोध और उपादेय पुस्तकका आदर होगा । ऐसी रचनाएँ हमको एक दूसरेके निकट लाती हैं। ऐसा भी कोई समय था जब 'हस्तिना पीड्यमानोऽपि न विशेज्जैनमन्दिरम्' जैसी उक्तियाँ निकली थीं । जैनोंमें भी इस जोड़को कहावतें होंगी। आज वह दिन गये । अब हमें दार्शनिक और उपासना सम्बन्धी बातोंमें वैषम्य रखते हुए एक दूसरेके प्रति सौहार्द रखना हैं | अपनी अपनी रुचिके अनुसार हम चाहे जिस सम्प्रदाय में रहें परन्तु हमको यह ध्यान में रखना है कि कपिल, व्यास, शङ्कराचार्य्य; बुद्ध और महावीर प्रत्येक भारतीयके लिए आदरास्पद हैं । और हमको निःश्र यसके पथपर ले जानेमें समर्थ है । वैशाख शु० १, २००५ } सम्पूर्णानन्द
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy