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________________ विशेष और विस्तृत अध्ययनके लिये तो बड़े ग्रंथोंको देखना ही होगा प्रारम्भिक ज्ञानके लिए यह छोटी-सी पुस्तक बहुत उपयोगी है । और जैन दः जैन दर्शन जगत्को सत्य मानता है । यह बात शाङ्कर अद्वैत विरुद्ध तो है परन्तु आस्तिक विचारधारासे असंगत नहीं है । उसका श्वरवादी होना भी स्वतः निन्द्य नहीं है । परम आस्तिक सांख्य मीमांसा शास्त्रोंके प्रवर्तकों को भी ईश्वरकी सत्ता त्वीकार करने में श्यक गौरवको प्रतीति होती है । वेदको प्रमाण न माननेके कारण दर्शनकी गणना नास्तिक विचार शास्त्रोंमें है परन्तु कर्म्मसिद्धान्त, पु तप, योग, देवादि विग्रहोंमें विश्वास जैसी कई ऐसी बातें हैं जो उलटफेरके साथ भारतीय आस्तिक दर्शनों तथा बौद्ध समानरूपसे सम्पत्ति हैं । इन सबका उद्गम एक है । आर्य्य जातिने मूल पुरुषोंसे जो आध्यात्मिक दाय पाया था उसकी पहिली अभि उपनिषदोंमें हुई । देशकालके भेदसे किञ्चित् नये परिधान धारण फिर वही वस्तु हमको महावीर और गौतमके द्वारा प्राप्त हुई । अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गी न्याय जैन दर्शनका मुख्य सिद्धान प्रत्येक पदार्थके जो सात 'अन्त' या स्वरूप जैन शास्त्रोंमें कहे हैं ठीक उसी रूपसे स्वीकार करनेमें आपत्ति हो सकती है । कुछ विद्व सात में कुछको गौण मानते हैं । साधारण मनुष्यको यह समझने में व होती है कि एक ही वस्तुके लिए एक ही समयमें है और नहीं बातें कैसे कही जा सकती हैं । परन्तु कठिनाईके होते हुए भी वस् तो ऐसी ही है । जो लेखनी मेरे हाथमें है, वह मेज़पर नहीं है बच्चेका अस्तित्व आज है उसका अस्तित्व कल नहीं था । जो वस्तु रूपसे है वह कुर्सीरूपसे नहीं है । जो घटना एकके लिए भूतकालिक दूसरे के लिए वर्तमानकी और तीसरेके लिए भविष्यत्की है । अखण् पदार्थ भले ही एकरस और ऐकान्तिक हो परन्तु प्रतीयमान जग सभी वस्तुएँ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हों, अनैकान्ति शङ्कराचार्य्यजीने इस बातको स्वीकार नहीं किया है इसलिए उन्होंने को सत् और असत्से विलक्षण, अथच अनिर्वचनीया कहा है । मैं स न्यायको तो बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक ब
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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